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मंगलवार, 4 जून 2019

milk

प्रियवर,
जय श्री कृष्णा
दूध, यानी पैसा खर्च कर बीमारी ले रहे मोल
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 2025 तक भारत में आधे से ज्यादा लोग कैंसर के शिकार होंगे। मिलावटी दूध को इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार बताया गया है।
आप सोच रहे होंगे कि इस तरह की अनेक जानकारी व्हाट्सएप पर भी देखी हैं। आपने पैसा कमाने के लिए पानी मिला खून बेचने की खबर भी अखबार में पढ़ी होगी। मसलन पैसे की भूख में आदमी क्या कुछ नहीं कर रहा, सोच कर घिन आती है।
मैं अब मुद्दे पर आता हूूूॅं। दिल्ली जैसे महानगरों में लाखों लोगोें ने दूध पीना छोड़ दिया है। मावा की मिठाई भी यहां लोग नहीं खाते। यह बात अलग है कि बाजारू खाने में वह मिलावटी दूध से ज्यादा हानिकारक चीजें खा जाते हैं। यदि आप दूध की शु़द्धता को परखने लायक समझ नहीं रखते तो मेरी सालह है कि आप भी दूध पीना छोड़ दें। पैसा खर्च कर बीमारी मोल लेने में कतई बुद्धिमानी नहीं है।
गर्मियों में भैंसों का अस्सी फीसदी दूध कम हो जाता है। गाय गर्मियों में और भैंस जाड़ों में सर्वाधित दूध देती हैं। आप किसी डेयरी या दूूध की दुकान पर चले जाएं और चाहे ़जितना दूध मांगें, मिल जाता है। आखिर यह सब कहां से आता है। यह बात चिंतनीय है।
घरों मंे माताओं को मोटी मलाई और उस मलाई से घी बनाकर दूध की कीमत निकालने का लालच होता है। आप जानकर हैरान रह जाएंगे कि वर्तमान में शुद्व दूध से ज्यादा मोटी मलाई मिलावटी दूध में पड़ जाती है। इसे गर्म कपड़े धोने के लिए प्रयोग में आने वाले ईजी, रिफाइंड आदि न जाने क्या-क्या मिलाकर बनाया जाता है। अब आप इसी से समझ लीजिए कि अब लागों को कई ब्रांडेड कंपनियों के घी में स्वाद नहीं आता जबकि खाद्य विभाग के मानकों पर उस घी में वह सारे तत्व हैं जो सेंपिल पास होने के लिए जरूरी हैं। आखिर यह सब क्या है। मेरा अनुभव तो यहां तक रहा है कि घर की भैंस जिसे सोयाबीन जैसा रिच प्रोटीन वाला अन्न, हरा चारा व बेहतरीन दाना दिया गया से प्राप्त दूध से निर्मित घी का नमूना भी फेल आया क्योंकि तत्वों की कमी जमीन में हो रही है और उसका असर चारे-दाने और दूध सभी में आ रहा है।  
भरोसे की आढ़ में लोग आपके और आपके नौनिहालों के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। में दाबे के साथ कह रहा हंू कि बाजार में बिक रहे दूध को ही किसी व्यक्ति के लिए दो तीन दिन आहार बना दिया जाए तो अच्छा खासा आदमी बीमार हो जाए। गली गली में दर्जनों डेयरी हैं लेकिन खाद्य विभाग को समय-समय पर नमूने लेने की फुुर्सत ही नहीं। हर शहर में दूध दूर दराज के गांवों से आता है। सुबह जल्दी दूध की डिलीवरी देने के लिए दूधिए दूध को फटने से बचाने के लिए हाइड्रो, फाॅर्मलीन नामक रसायनों का प्रयोग अंदाजे से  करते हैं। रसायनों की मात्रा दूध को कितने दिन तक फटने से रोकना है के आधार पर निर्धारित की जाती है। जरा इनके दुष्प्रभावों के विषय में गूगल में सर्च करके पढ़ लीजिएगा। इसके बाद भी आठ बजे से पहले दूध लाने वाले दूधिए से दूध लीजिएगा।
इतना ही नहीं जिसमें जीवन है वह गलेगा और सडे़गा। जिसमें जीव-जीवन नहीं वह नहीं। नमक, यूरिया या किसी भी तरह का रसायन नहीं सड़ता। जो नहीं सड़ता वह निर्जीव है। यह सब भैंस के दूध उत्पादन की कमी और बढ़ती मांग के चलते हो रहा है। आप अगर कुछ हद तक शुद्धता चाहते हैं तो गाय का दूध मांगें। दूधियों को वह सस्ता पड़ता है और उनके खर्चे भी निकल आते हैं। भारत गौ प्रधान देश है। गौ माता भी समृद्ध होगी और पैसा देकर बीमारी मोल लेने से आप भी बचेंगे। लोगों तक शुद्ध दूध, जैविक मसाले, दालें, अन्न, गुड़, तेल, सब्जियां आदि पहुंचाने का एक लघु प्रयास हमारे द्वारा मथुरा में किया जा रहा है। यहां से सीधे किसानों से शुद्ध चीजें प्राप्त कर लोगों तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए महाविद्या चैराहे पर गिरिराज मंदिर के पास मधु वृन्दावन के नाम से काउंटर स्थापित किया गया है।
अधिक जानकारी और गाय-भैंस आदि के शुद्ध दूध तथा जैविक वस्तुओं के लिए संपर्क करें- दिलीप कुमार यादव भारत सरकार द्वारा सम्मानित कृषि पत्रकार-9808059700

रविवार, 9 जून 2013


बकरियों में विषाणुजनित रोग


गांव और गरीबी से बकरियों का सीधा नाता है इसी¶िए बकरी को गरीब की गाय के नाम से जाना जाता है।
महात्मागांधी ने भी बकरी पा¶न किया और वह खुद बकरी के दूध का सेवन करते थे। बाद में कुछ ¶ोगों द्वारा यह दुष्प्रचार करने पर कि बापू की बकरी तो बादाम-पिस्ता खाती है, उन्होंने दूध पीना ही बंद कर दिया था। वर्तमान में बकरियों से करीब 15 हजार करोड़ की आय होती है। बकरी पा¶न में रोग संक्रमण और इससे मृत्युदर का ग्राफ बहुत है।
वयस्कों में इसका प्रतिशत 5 से 25 व बच्चों में 10 से 40 प्रतिशत रहता है। यदि मृत्युदर पर काबू पा ¶िया जाए तो बकरी पा¶न बेहतरीन कारोबार सिद्घ हो सकता है। रोग संक्रमणों में विषाणुजनित रोग मुख्य रूप से जिम्मेदार होते हैं।
पीपीआर-इस रोग से पशुओं की मृत्यु बहुत तेजी से होती है इसी¶िए इस रोग को बकरी के प्¶ेग के नाम से भी जानते हैं। इस रोग के दौरान पशु को काफी तेज बुखार आता है।
नाक-आंख से पानी बहने के साथ दस्त आदि के लक्षण दिखते हैं। मुंह में छा¶े भी हो जाते हैं। भेड़,़ बकरियों को इस रोग के प्रभाव से बचाने के ¶िए पीपीआर का टीका लगाया जाता है। यह टीका बकरी के चार माह के बच्चे को लगाया जाता है। इसका असर तीन सा¶ तक रहता है।
खुरपका, मुॅंहपका रोग-यह रोग छोटे और बड़े सभी पशुओं में होता है। इसका असर विशेषकर बरसात और गर्मी की मिश्रित स्थिति में दिखता है। मानसून के प्रारंभ में ही यह रोग पशुओं को अपने प्रभाव में ¶े ¶ेता है। इस रोग के संक्रमण से पशु के खुर सड़ जाते हैं। मुंह में छा¶े बनकर पक जाते हैं। पशु न तो ठीक से खड़े होने, न घूमने लायक और न ही चारा खाने लायक होता है। इससे कमजोर होकर वह अन्य रोगों की गिरफ्त में आकर का¶ कव¶ित हो जाता है। इस रोग के लिए अभियान च¶ाकर पशुपा¶न विभाग द्वारा टीके लगाए गए हैं। जिन पशुओं को टीका नहीं लगा है वह तत्का¶ निकट के पशु चिकित्सा¶य पर टीका लगवाएं।
ब्लू टंग- यह रोग कीड़े मकौड़ों के माध्यम से फैलता है।
इस रोग से प्रभावित पशु सुस्त होकर चारा छोड़ देता है। मुंह व नाक पर ला¶ी बढ़ जाती है। इसका निदान भी टीके के माध्यम से होता है। उल्लेखनीय है पशु को रोग के प्रभाव में आने से पूर्व ही टीका लगाने लाभ होता है। रोग बढ़ने पर टीके का कोई विशेष लाभ नहीं होता।
बकरी चेचक-यह रोग भी बकरियों में महामारी की तरह फैलता है। इसके प्रभाव से पशु के शरीर पर चकत्ते बन जाते हैं और अंतत: पशु मृत्यु का शिकार बन जाता है। इस रोग से बचाव के ¶िए भी बकरी के तीन चार माह के बच्चे को टीका लगवा देना चाहिए।
मुॅंहा रोग- इस बीमारी के प्रभाव से मुॅंह, थन, योनिमुख, कान आदि पर त्वचा कड़ी हो जाती है और उस पर छा¶े बन जाते हैं। बकरी के बच्चों में इसका प्रभाव होठों पर दिखता है। इस रोग के लक्षण दिखने पर तुरंत चिकित्सक से संपर्क कर उपचार कराना चाहिए।
बकरियों में विषाणुजनित रोग

तीखी मिर्च देगी मुनाफा


दिलीप कुमार यादव 
मिर्च भारतीयों के भोजन की जान है। गर्मी के समय में लोग सलाद के साथ कच्ची मिर्च चाव से खाते हैं। इसमें तीखापन ओलियोरेजिल कैप्सिसिन नामक एक उड़नशी¶ एल्केलक्ष्ड के कारण तथा उग्रता कैप्साइसिन नामक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती है। मसाले से लेकर सब्जियों और चटनियों में इसका प्रयोग किया जाता है। मिर्च के बीज में 0.16 से 0.39 प्रतिशत तक तेल होता है। मिर्च में अनेक औषधीय गुण भी होते हैं। औद्यानिक मिशन से जुड़ने के बाद इन किसानों की मिर्च देश की हर बड़ी मण्डी में जा रही है। मुम्बई से लेकर जयपुर तक यहाँ की मिर्च जाती है। संगठित खेती से मुनाफा भी बढ़ रहा है।
इसकी खेती गर्म और आर्द्र जलवायु में भली-भांति होती है। लेकिन फलों के पकते समय शुष्क मौसम का होना आवश्यक है। बीजों का अच्छा अंकुरण 18-30 सेण्टीग्रेट तापामन पर होता है। मिर्च के फूल व फल आने के ¶िए सबसे उपयुक्त तापमान 25-30 डिग्री सेण्टीग्रेट होता है।
पूसा ज्वाला किस्म के पौधे छोटे आकार के और पत्तियां चौड़ी होती हैं। फल 9-10 सेण्टीमीटर लम्बे ,पत¶े व हल्के हरे रंग के होते हैं। उपज 75-80 क्विंटल प्रति हैक्टेअर हरी मिर्च के लिए तथा 18-20 क्विंटल सूखी मिर्च के लिए होती है।
पूसा सदाबाहर किस्म के पौधे सीधे व लम्बे, 60 - 80 सेण्टीमीटर के होते हैं। फल 6-8 सेण्टीमीटर लम्बे, गुच्छों में होते हैं और 6-14 फल प्रति गुच्छे में आते हैं। पैदावार 90-100 क्विंटल, हरी मिर्च के ¶िए तथा 20 क्विंटल प्रति हैक्टेअर सूखी मिर्च के लिए होती है।
बीज-दरएक से डेढ़ किलोग्राम अच्छी मिर्च का बीज लगभग एक हैक्टेयर में रोपने लायक पौध तैयार कर देता है।
बुवाई- मैदानी और पहाड़ी दोनों ही इलाकों में मिर्च बोने के ¶िए सर्वोतम समय अप्रैल-जून तक का होता है। बड़े फ¶ों वा¶ी किस्में मैदानों में अगस्त से सितम्बर तक या उससे पूर्व जूनजु लाई में भी बोई जा सकती हैं।
खाद एवं उर्वरक- गोबर की सड़ी हुई खाद लगभग 300-400 क्विंटल जुताई के समय गोबर मिट्टी में मिला देना चाहिए । रोपाई से पहले 150 किलोग्राम यूरिया ,175 किलोग्राम सिंगल सुपर फस्फेट तथा 100 कि¶ोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश तथा 150 कि¶ोग्राम यूरिया बाद में लगाने की सिफारिश की गई है।
यूरिया उर्वरक फूल आने से पह¶े अवश्य दे देना चाहिए।
पौध संरक्षण- आर्द्रगलन रोग ज्यादातर नर्सरी की पौध में आता है। इस रोग में सतह , जमीन के पास से तना ग¶ने लगता है तथा पौध मर जाती है। इस रोग से बचाने के ¶िए बुआई से पहले बीज का उपचार फफंदूनाशक दवा कैप्टान 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए। इसके अलावा कैप्टान 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर सप्ताह में एक बार नर्सरी में छिड़काव किया जाना चाहिए।
एन्थ्रेकAोज रोग में पत्तियों और फलों में विशेष आकार के गहरे, भूरे और का¶े रंग के धब्बे पड़ते हैं। इसके प्रभाव से पैदावार बहुत घट जाती है। इसके बचाव के लिए एम-45 या बावस्टीन नामक दवा 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
मरोडिया लीफ कर्ल रोग मिर्च की एक भंयकर बीमारी है। यह रोग बरसात की फस¶ में ज्यादातर आता है। शुरू में पत्ते मुरझ जाते हैं एवं वृद्घि रुक जाती है। अगर इसे समय रहते नियंत्रण नहीं किया गया हो तो ये पैदावार को भारी नकुसान पहुँचाता है। यह एक विषाणु रोग है जिसका किसी दवा द्वारा नित्रंयण नहीं किया जा सकता है। यह रोग सफेद मक्खी से फैलता है। अत: इसका नियंत्रण भी सफेद मक्खी से छुटकारा पा कर ही किया जा सकता है। इसके नियंत्रण के ¶िए रोगयुक्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें तथा 15 दिन के अतंरा¶ में कीटनाशक रोगर या मैटासिस्टाक्स 2 मिली¶ीटर प्रति लीटर पानी में घो¶कर छिड़काव करें। इस रोग की प्रतिरोधी किस्में जैसे-पूसा ज्वा¶ा, पूसा सदाबाहर और पन्त सी-1 को लगाना चाहिए।
मौजेक रोग में हल्के पी¶े रंग के घब्बे पत्ताें पर पड़ जाते हैं। बाद में पत्तियाँ पूरी तरह से पीली पड़ जाती हैं। तथा वृद्घि रुक जाती है। यह भी एक विषाणु रोग है जिसका नियंत्रण मरोडिया रोग की तरह ही है। थ्रिप्स एवं एफिड कीट पत्तियों से रस चूसते हैं और उपज के ¶िए हानिकारक होते हैं। रोगर या मैटासिस्टाक्स 2 मिली¶ीटर प्रति लीटर पानी में घो¶ बनाकर छिड़काव करने से इनका नियंत्रण किया जा सकता है।
मथुरा के छिनपारई गांव की मिर्च को मिला मुम्बई जयपुर में बाजार

बागवानी करें हल्दी की खेती


हल्दी के बगैर किसी सब्जी के स्वाद की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह मसा¶ों का राजा होने के साथ औषधीय गुणों से भरपूर होती है। इसकी खेती सरल होने के साथ इसे आमदनी का एक अच्छा साधन बनाया जा सकता है।
हल्दी की खेती बलुई दोमट या मटियार दोमट मृदा में सफलतापूर्वक की जाती है। इसके लिए ज¶ निकास की उचित व्यवस्था होना चाहिए। यदि जमीन थोड़ी अम्लीय है तो उसमें हल्दी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। हल्दी की खेती हेतु भूमि की अच्छी तैयारी करने की आवश्यकता है क्योंकि यह जमीन के अंदर होती है जिससे जमीन को अच्छी तरह से भुरभुरी बनाया जाना आवश्यक है। खेत करीब नौ इंच की गहराई तक जोतना चाहिए। जुताई से पूर्व 20 से 25 टन गोबर की सड़ी खाद एक हैक्टेयर में डा¶नी चाहिए।
इसके बाद 100-120 कि¶ोग्राम नत्रजन 60-80 कि¶ोग्राम फास्फोरस, 80-100 कि¶ोग्राम पोटाश का प्रयोग करना चाहिए। हल्दी की खेती हेतु पोटाश का बहुत महत्व है जो इसके प्रयोग के अभाव में, हल्दी की गुणवत्ता तथा उपज दोनों ही प्रभावित होती है।
हल्दी की सफल खेती हेतु उचित फस¶ चक्र का अपनाना अति आवश्यक है। इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि हल्दी की खेती लगातार उसी जमीन पर न की जाए क्योंकि यह फस¶ जमीन से ज्यादा से ज्यादा पोषक तत्वों को खींचती है। इससे दूसरे सा¶ उसी जमीन में इसकी खेती नहीं करें तो ज्यादा अच्छा होगा। सिंचित क्षेत्रों में मक्का, आ¶ू, मिर्च, ज्वार, धान, मूंगफली आदि फस¶ों के साथ फस¶ चक्र अपनाकर हल्दी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
मसा¶े वा¶ी किस्म, पूना, सोनिया, गौतम, रश्मि, सुरोमा, रोमा,कृष्णा, गुन्टूर, मेघा, हल्दा-1, सुकर्ण तथा सुगंधन आदि इसकी प्रमुख प्रजातियां हैं जिनका चुनाव किसान कर सकते हैं। इसकी थोड़ी सी मात्रा यदि एक बार मिल जाती है तो फिर अपना बीज तैयार किया जा सकता है।
पानी की पर्याप्त सुविधा वा¶े किसान अप्रै¶ के दूसरे पखवाड़े से जु¶ाई के प्रथम सप्ताह तक हल्दी को लगा सकते हैं, ¶ेकिन जिनके पास सिंचाई सुविधा का पर्याप्त मात्रा में अभाव है वे मानसून की बारिश शुरू होते ही हल्दी लगा सकते हैं। जमीन अच्छी तरह से तैयार करने के बाद 5-7 मीटर लम्बी तथा 2-3 मीटर चौड़ी क्यांरियां बनाकर 30 से 45 सेण्टीमीटर कतार से कतार तथा 20 - 25 सेण्टीमीटर पौध से पौध की दूरी रखते हुए 4-5 सेण्टीमीटर गहराई पर गाठी कन्दों को लगाना चाहिए। प्रति हैक्टेयर 12 से 15 कुंतल कंदों की आवश्यक्ता होती है। हल्दी में ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं है ¶ेकिन यदि फस¶ गर्मी में ही बोई जाती है तो वर्षा प्रारंभ होने के पह¶े तक 4-5 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती हैं। मानसून आने के बाद सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। नवम्बर माह में पत्तियों का विकास तथा कन्द की मोटाई बढ़ना आरंभ हो जाता है तो उस समय उपज ज्यादा प्राप्त करने हेतु मिट्टी चढ़ाना आवश्यक हो जाता है जिससे कन्दों का विकास अच्छा होता है तथा उत्पादन में वृद्घि हो जाती है। मई- जून में बोई गई फस¶ फरवरी माह तक खोदने लायक हो जाती है। इस समय धन कन्दों का विकास हो जाता है और पत्तियां पीली पड़कर सूखने लगती हैं।
हल्दी की अगेती फस¶ 7-8 माह मध्यम 8-9 माह तथा देर से पकने वा¶ी 9-10 माह में पककर तैयार हो जाती है। उपरोक्त मात्रा में उर्वरक तथा गोबर की खाद का प्रयोग कर के हम 50-100 किवंटल प्रति हैक्टेयर कच्ची हल्दी प्राप्त कर सकते हंै। यह ध्यान रहे कि कच्ची हल्दी को सुखाने के बाद वह 15-25 प्रतिशत ही रह जाती है।