मिर्च भारतीयों के भोजन की जान है। गर्मी के समय में लोग सलाद के साथ कच्ची मिर्च चाव से खाते हैं। इसमें तीखापन ओलियोरेजिल कैप्सिसिन नामक एक उड़नशी¶ एल्केलक्ष्ड के कारण तथा उग्रता कैप्साइसिन नामक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती है। मसाले से लेकर सब्जियों और चटनियों में इसका प्रयोग किया जाता है। मिर्च के बीज में 0.16 से 0.39 प्रतिशत तक तेल होता है। मिर्च में अनेक औषधीय गुण भी होते हैं। औद्यानिक मिशन से जुड़ने के बाद इन किसानों की मिर्च देश की हर बड़ी मण्डी में जा रही है। मुम्बई से लेकर जयपुर तक यहाँ की मिर्च जाती है। संगठित खेती से मुनाफा भी बढ़ रहा है। इसकी खेती गर्म और आर्द्र जलवायु में भली-भांति होती है। लेकिन फलों के पकते समय शुष्क मौसम का होना आवश्यक है। बीजों का अच्छा अंकुरण 18-30 सेण्टीग्रेट तापामन पर होता है। मिर्च के फूल व फल आने के ¶िए सबसे उपयुक्त तापमान 25-30 डिग्री सेण्टीग्रेट होता है। पूसा ज्वाला किस्म के पौधे छोटे आकार के और पत्तियां चौड़ी होती हैं। फल 9-10 सेण्टीमीटर लम्बे ,पत¶े व हल्के हरे रंग के होते हैं। उपज 75-80 क्विंटल प्रति हैक्टेअर हरी मिर्च के लिए तथा 18-20 क्विंटल सूखी मिर्च के लिए होती है। पूसा सदाबाहर किस्म के पौधे सीधे व लम्बे, 60 - 80 सेण्टीमीटर के होते हैं। फल 6-8 सेण्टीमीटर लम्बे, गुच्छों में होते हैं और 6-14 फल प्रति गुच्छे में आते हैं। पैदावार 90-100 क्विंटल, हरी मिर्च के ¶िए तथा 20 क्विंटल प्रति हैक्टेअर सूखी मिर्च के लिए होती है। बीज-दरएक से डेढ़ किलोग्राम अच्छी मिर्च का बीज लगभग एक हैक्टेयर में रोपने लायक पौध तैयार कर देता है। बुवाई- मैदानी और पहाड़ी दोनों ही इलाकों में मिर्च बोने के ¶िए सर्वोतम समय अप्रैल-जून तक का होता है। बड़े फ¶ों वा¶ी किस्में मैदानों में अगस्त से सितम्बर तक या उससे पूर्व जूनजु लाई में भी बोई जा सकती हैं। खाद एवं उर्वरक- गोबर की सड़ी हुई खाद लगभग 300-400 क्विंटल जुताई के समय गोबर मिट्टी में मिला देना चाहिए । रोपाई से पहले 150 किलोग्राम यूरिया ,175 किलोग्राम सिंगल सुपर फस्फेट तथा 100 कि¶ोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश तथा 150 कि¶ोग्राम यूरिया बाद में लगाने की सिफारिश की गई है। यूरिया उर्वरक फूल आने से पह¶े अवश्य दे देना चाहिए। पौध संरक्षण- आर्द्रगलन रोग ज्यादातर नर्सरी की पौध में आता है। इस रोग में सतह , जमीन के पास से तना ग¶ने लगता है तथा पौध मर जाती है। इस रोग से बचाने के ¶िए बुआई से पहले बीज का उपचार फफंदूनाशक दवा कैप्टान 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए। इसके अलावा कैप्टान 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर सप्ताह में एक बार नर्सरी में छिड़काव किया जाना चाहिए। एन्थ्रेकAोज रोग में पत्तियों और फलों में विशेष आकार के गहरे, भूरे और का¶े रंग के धब्बे पड़ते हैं। इसके प्रभाव से पैदावार बहुत घट जाती है। इसके बचाव के लिए एम-45 या बावस्टीन नामक दवा 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। मरोडिया लीफ कर्ल रोग मिर्च की एक भंयकर बीमारी है। यह रोग बरसात की फस¶ में ज्यादातर आता है। शुरू में पत्ते मुरझ जाते हैं एवं वृद्घि रुक जाती है। अगर इसे समय रहते नियंत्रण नहीं किया गया हो तो ये पैदावार को भारी नकुसान पहुँचाता है। यह एक विषाणु रोग है जिसका किसी दवा द्वारा नित्रंयण नहीं किया जा सकता है। यह रोग सफेद मक्खी से फैलता है। अत: इसका नियंत्रण भी सफेद मक्खी से छुटकारा पा कर ही किया जा सकता है। इसके नियंत्रण के ¶िए रोगयुक्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें तथा 15 दिन के अतंरा¶ में कीटनाशक रोगर या मैटासिस्टाक्स 2 मिली¶ीटर प्रति लीटर पानी में घो¶कर छिड़काव करें। इस रोग की प्रतिरोधी किस्में जैसे-पूसा ज्वा¶ा, पूसा सदाबाहर और पन्त सी-1 को लगाना चाहिए। मौजेक रोग में हल्के पी¶े रंग के घब्बे पत्ताें पर पड़ जाते हैं। बाद में पत्तियाँ पूरी तरह से पीली पड़ जाती हैं। तथा वृद्घि रुक जाती है। यह भी एक विषाणु रोग है जिसका नियंत्रण मरोडिया रोग की तरह ही है। थ्रिप्स एवं एफिड कीट पत्तियों से रस चूसते हैं और उपज के ¶िए हानिकारक होते हैं। रोगर या मैटासिस्टाक्स 2 मिली¶ीटर प्रति लीटर पानी में घो¶ बनाकर छिड़काव करने से इनका नियंत्रण किया जा सकता है। मथुरा के छिनपारई गांव की मिर्च को मिला मुम्बई जयपुर में बाजार |
किसान भाइयों को अत्याधुनिक खेती की तकनीकों की जानकारी मिलने का सरल साधन।
रविवार, 9 जून 2013
तीखी मिर्च देगी मुनाफा
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें