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रविवार, 13 मार्च 2011

जानें ब्रज भूमि:-अनूठी है कृष्ण जन्म भूमि के ध्वंस और विकास की यात्रा


शदियों तक मिटाया जाता रहा श्रीकृष्ण के प्राकट्योत्सव का अस्तित्व
मथुरा। आधुनिक कटरा केशव ही वह स्थान माना जाता है जहाँ मथुरापति कंस का  कारागार था। यहीं देवकीनंदन-वसुदेव के पुत्र रूप में भगवान कृष्ण का जन्म हुआ। इन्हीं का जन्मोत्सव मनाने की तैयारी विश्वभर का श्रद्धालु समाज कर रहा है। इस स्थल को शदियों तक बार-बार मिटाया और बनवाया जाता रहा। आधुनिक मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हुआ तो प्राकट्य स्थली का वैभव दिन दूना रात चौगुना हो गया।
इस स्थान पर सबसे पहला मंदिर भगवान कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ  ने आराध्य की अर्चना के लिए श्रद्धा पूर्वक बनवाया। यह पता नहीं चलता कि वह मंदिर किन कारणों से विलुप्त हो गया लेकिन साक्ष बताते हैं कि ईसापूर्व 80-57 की अवधि में महाक्षत्रप सोडाष के राज्यकाल में श्रीवसु नामक एक व्यक्ति ने श्रीकृष्ण प्राकट्य स्थली पर एक मंदिर, तोरणद्वार और वेदिका का निर्माण कराया। इस मंदिर के   खत्म हो जाने के बाद तीसरी बार बड़ा मंदिर सन् 400 ई. में सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में बना। चंद्रगुप्त द्वारा निर्मित इस  मंदिर का ध्वंस 1017 ई. में महमूद गजनवी ने किया। सन् 1150 ई. के विशाल शिलालेख से जो जन्मभूमि परिसर की खुदाई में निकला, पता चलता है कि तत्कालीन राजा विजय पाल देव के काल में जज्ज नामक  धनाड्य ने उसी स्थान पर फिरसे भव्य मंदिर का निर्माण कराया। मथुरा यात्रा के समय चैतन्य महाप्रभू  इस मंदिर में पधारे थे। चैतन्य चरितामृत में  कृष्णदास कविराज ने इस घटना का जिक्र किया है। सोलहवीं सदी में दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी ने इस मंदिर को नष्ट किया। इसके करीब सवासौ वर्ष बाद जहाँगीर के शासन काल में ओरछा नरेश राजा वीरसिंह जूदेव ने इस जगह 33 लाख की लागत से मंदिर बनवाया। तदोपरांत 1669 में औरंगजेब ने इस मंदिर को तोड़ दिया।
1943 में महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय जब मथुरा पधारे तो उनसे श्रीकृष्ण जन्मभूमि के खण्डहर देखे नहीं गए। उन्होंने यहां जन्मभूमि के पुनरुद्धार का संकल्प लिया। तदोपरांत जुगल किशोर बिड़ला जन्मस्थान के दर्शन को आए। उन्होंने जन्मस्थान के दर्शन कर दृवित मन की टीस भरा पत्र हिन्दुत्व निष्ठा के मूर्तिमान स्वरूप मालवीय जी को लिखा। दो लोगों के मन की टीस ने मंदिर के जीर्णोद्धार के विचार को आधार दिया। बिडलाजी ने बनारस के राजा पटनीमल के तत्कालीन उत्तराधिकारियों से कटरा केशवदेव 7 फरवरी 1944 को खरीद लिया। पुनरुद्धर की योजना बन ही रही थी कि मालवीयजी का निधन हो गया। मालवीयजी की अbhiलाशा को पूर्ण करने के लिए बिडलाजी ने द्वारिकानाथ भार्गव एडवोकेट से परामर्श कर 21 फरवरी 1951 को श्रीकृष्ण जन्म•ाूमि न्यास ट्रस्ट की स्थापना की । इसके बाद bhi  जमीन को लेकर कई मुकदमे डाल देने से निर्माण कार्य नहीं हो सका लेकिन मुकदमे खारिज होने के बाद 1953 में काम शुरू हो गया। ट्रस्ट के अध्यक्ष स्वामी अखण्डानंद ने सबसे पहले •ाूमि समतल कराने को विशाल श्रमदान कराया। तदोपरांत 1965 में कल्याण पत्रिका के तत्कालीन संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार 600 भक्तों के साथ देशाटन करते हुए मथुरा पहुँचे। वह bhi  आराध्य की प्राकट्य स्थली को देख व्यथित हो उठे। शहर की एक सभा  में उन्होंने अपने मन की व्यथा शहर वासियों के साथ बांटी। इस सभा  में विष्णुहरि डालमिया के पिता जयदयाल डालमिया मौजूद थे। पोद्दारजी एवं बिडलाजी ने जयदयाल डालमिया से इस पुनीत कार्य का दायित्व संभालने को कहा और वह राजी हो गए। शीघ्र ही मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ  हो गया। तदोपरांत गर्भ गृह में पधराने के लिए भगवान के बाल स्वरूप की मूर्ति बिडलाजी ने ही प्रदान की। मंदिर में विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा 29 जून 1975 ई. को हुई। इसका उद्घाटन भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य दिवस श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर 6 सितंबर 1956 को पोद्दारजी ने किया। तदोपरांत जुगलकिशोर बिडला की प्रेरणा से जन्मस्थान परिसर में 11 फरवरी 1965 को ने भागवत भवन का शिलान्यास किया गया। इसका निर्माण 17 वर्षों में पूर्ण हुआ। इसकी विशाल दीवालों पर श्रीमद्भागवद् गीता के 12 हों स्कन्धों को तामृपत्रों पर उत्कीर्ण कराकर लगाया। इसकी प्राण प्रतिष्ठा का कार्य 12 फरवरी 1982 को पूर्ण हुआ। इसके बाद जन्मस्थान ट्रस्ट मंदिर पर बढ़ते श्रद्धालुओं की सुविधार्थ अन्तर्राष्टÑीय गेस्ट हाउस, वैष्णव भोजनालय, अन्नक्षेत्र, गोसेवा प्रकल्प आदि कार्यों को गति दे रहा है।

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