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रविवार, 13 मार्च 2011

मंहगाई डाइन खाए जात है....

 

गंवाई गीतों की बेहत है मार्केटिंग, संरक्षण करने वालों की कमी
मथुरा। ठेठ गंवई संगीत का आनंद लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है। फिल्म पीपली लाइव के ‘सखी सैयाँ तो खूबई कमात है, महंगाई डाइन खाए जात है’ गीत को लोगों ने हाथों हाथ लिया है। मजे की बात यह है कि देहाती चौपाल के जमघट में फिल्माए गए इस गीत में किसी पार्श्व संगीत के वाद्य का प्रयोग नहीं हुआ है। जरूरत इस बात ही है कि इनके संरक्षण की दिशा में कोई ठोस योजना बने और ग्रीमीणों को इसकी रायल्टी मिले।
महंगाई पर यह दूसरा गीत माना जा रहा है। इससे पूर्व मनोज कुमार की फिल्म ‘रोटी कपड़ा और मकान, का गीत ‘बाकी कुछ बचा बचा तो महंगाई मार गई’ लोगों की जुबां पर आज भी  है। इस गीत की पंक्तियों पर नजर डालें तो गांव-गरीब खेत एवं खलियान के अलावा कुछ नहीं। ठेठ देहाती स्वर और ताल का कमाल इससे अजूबा नहीं हो सकता। आकाशवाणी के पूर्व उद्घोषक राधा विहारी गोस्वामी कहते हैं कि फोक संगीत में बहुत जान है, लेकिन उसे परोसने वाला पारखी होना चाहिए। ‘हर महीना उछले पिटरोल, डीजल का उछला है रॉल’ पंक्ति हर किसी के जेब खर्च से जुड़ी हुई है। ‘रुका बासमतीधान मरी जात हैं’ पंक्ति धान के निर्यात को रुकने की ओर इशारा करती है। ‘सोयाबीन काका बेहाल, गर्मी से पिचके हैं गाल, गिर गए पत्ते पक गए बाल, मक्का जीजी ने खाय लई मात है, महंगाई डायन खाए जात है’ पंक्ति पूरी तरह से खेती के दर्द को बयाँ करती है। पंरतु, उसके संवाद आम इंसान को अपनी जिंदगी के बेहद करीब लगते हैं। हमने अपने ब्लाग पर इसी तरह के लोकगीत छोटी मिरच बड़ी तेज बलमा को आपके लिए प्रस्तुत किया है। यह क्रम आगे भी  जारी रहेगा।

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