खेती के लिए महत्वपूर्ण है हरी खाद
हरी खाद भूमि में जैविक तत्वों कि मात्रा बढ़ाकर संरचना में सुधार करती है जिससे भूमि की जल धारण क्षमता में सुधार होता है।
. भूमि की क्षारीय और लवणीय स्थिति में सुधार होता है।
. भूमि में पोषक तत्वों जैसे नत्रजन, फास्फोरस, कैल्सियम, पोटेशियम आदि तत्वों की अधिक मात्रा व सुलभता में वृद्धि होने के साथ-साथ मृदा में उपलब्ध सूक्ष्म तत्वों को अधिक सुलभ बनाती है।
. खरपतवारों की वृद्धि को रोककर खरपतवारों की रोकथाम करती है।
. मिट्टी की जुताई और उस पर होने वाली खेती में सुधार करती है।
. मृदा में जैविक गतिविधियां बढ़ाती है।
. हरी खाद के प्रयोग से मृदा में नत्रजन एवं कार्बनिक पदार्थो की वृद्धि करती है।
. मृदा कटाव अवरुद्ध करती है। परिणाम स्वरुप ऊपरी उपजाऊ सतह संरक्षित रहती है।
हरी खाद की फसलें इनमें मुख्यत ढैंचा, सनई आदि फलीदार पौधे नत्रजन की आपूर्ति दलहनी पौधों की भांति तो नहीं करते परन्तु मृदा में काफी मात्रा में जीवांस पदार्थ मिलाते हैं जैसे ज्वार, सूरज मुखी, जौ इत्यादि।
खाद की फसलों की विशेषताएं . फसल के वानस्पतिक भाग जैसे तना, पत्तियां, व शाखा आदि का अधिक होना।
. पौधे के तने कोमल और रसदार होने चाहिए।
. पौधों की जड़ों में पर्याप्त राइजोबियम ग्रंथिया बनना चाहिए।
. फसल की जड़ें जल्दी बढ़ने वाली एवं गहरी होनी चाहिए।
.पौधे कम जल की स्थिति में भी उगने वाले होने चाहिए।
. पौधों कम उर्वर मृदा में भी उपज और वृद्धि करने वाले होने चाहिए।
. फसल कीट व रोग अवरोधी होनी चाहिए।
. वह भूमि को ज्यादा मात्रा में ह्यूमस और पादक पोषक तत्व प्रदान कर सके।
. फसल का बीज सस्ता और आसानी से उपलब्ध होना चाहिए।
. इसका फसल चक्र में उचित स्थान होना चाहिए।
स्व स्थाने विधि इस विधि में हरी खाद वाली फसल उसी खेत में पैदा की जाती है तथा जुताई कर उसी खेत कि मिट्टी में दबा दी जाती है। इस तरह की फसलें अकेले तथा दूसरी मुख्य फसल के साथ मिश्रित रूप में बोई जाती हंै। यह विधि खास तौर पर सामान्य एवं अधक वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए अधिक उपयुक्त है।
हरी पत्ती की खाद इस विधि में झड़ियों के पत्ते तथा टहनियां लाकर खेत में दबाई जाती हैं वे कोमल भाग जमीन में थोड़ी सी नमी होने पर सड़ जाते हैं। इस प्रकार की हरी खाद बनाने के लिए सेस्बनिया, करंज तथा ग्लायारी सीडिया आदि का प्रयोग किया जाता है।
जैविक बनाम रासायनिक खेती
आ मतौर पर यह माना जाता है कि ज्यादा मात्रा में रासायनिक खाद एवं कीटनाशक इस्तेमाल करने से उत्पादन बढ़ाया जा सकता है और उत्पादन बढ़ने से किसान का मुनाफा बढ़ सकता है। सरकार भी किसानों को वैज्ञानिक ढंग से खेती करने की सलाह देती है, लेकिन इस वैज्ञानिक विधि का अर्थ सिर्फ और सिर्फ रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल तक ही सीमित होता है। नतीजतन आए दिन हम विदर्भ, आंध्र प्रदेश, गुजरात, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें सुनते रहते हैं। इसके अलावा रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल से अनाज, सब्जियां, दूध और पानी, जो इंसान के जीवन का प्रमुख आधार हैं, जहरीले बनते जा रहे हैं। इस वजह से इंसानी जीवन धीरे-धीरे खतरे में पड़ता जा रहा है। आज हार्टअटैक, शुगर, ब्लडप्रेशर एवं अन्य कई प्रकार की बीमारियां आम होती जा रही हैं। आज हम जो भी खाते हैं, उसमें रासायनिक तत्वों की अधिकता इतनी ज्यादा होती है कि हमारा खाना मीठा जहर बन चुका है।
फसल उगाने के लिए अंधाधुंध रासायनिक खाद का इस्तेमाल इंसानी जीवन के लिए खतरा तो बना ही है, साथ ही यह जमीन को भी बंजर बनाता जा रहा है। भूमि की उर्वरा शक्ति घटती जा रही है। उत्पादन बढ़ाने के लिए लगातार रासायनिक खाद की मात्रा बढ़ानी पड़ रही है। मिट्टी में जीवाश्म की मात्रा घटती जा रही है।
भूमि की भौतिक संरचना एवं रासायनिक गुणों पर इसका विपरीत असर पड़ रहा है। अब सवाल यह है कि क्या इन सारी समस्याओं का कोई समाधान नहीं है? समाधान है, इन सारी समस्याओं का एकमात्र समाधान जैविक खेती है। जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में वर्मी कंपोस्ट मददगार साबित हो रही है। जैविक खेती रासायनिक खेती से सस्ती पड़ती है, क्योंकि इसका कच्चा माल किसान के पास उपलब्ध रहता है, जैसे गोबर से कंपोस्ट खाद, चारे एवं फसलों के अवशेष से तैयार खाद, केचुए की खाद।
ऐपिजेइक केंचुए की इसीनिया फीटिडा प्रजाति (रेड वर्म) से बेहतर जैविक खाद बनाई जा सकती है। वर्मी कंपोस्ट सस्ती होती है, साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ाती है। यह जल, भूमि एवं वायु को स्वस्थ बनाती है। इसके उपयोग से कम पानी से भी खेती संभव है। इससे उत्पादन लागत में भी कमी आती है। जैविक विधि से पैदा किया गया अनाज स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक भी होता है। जैविक खेती के क्षेत्र में कई संस्थाओं और कृषि विभाग ने प्रयास शुरू किए हैं। देश के लगभग सभी राज्यों में जैविक कृषि के बारे में जानकारी और प्रोत्साहन दिया जा रहा है। बहुत से किसानों ने जैविक खेती को अपना लिया है। कृषि विभाग किसानों को गोबर एवं केचुआ से जैविक खाद और वर्मी वाश के रूप में कीटनाशक बनाने की ट्रेनिंग देता है। गोमूत्र, नीम, हल्दी एवं लहसुन से हर्बल स्प्रे बनाया जाता है। जैविक खेती आज किसानों के लिए वरदान साबित हो रही है। विशेषज्ञों ने क्षेत्रों में घूमकर किसानों के अनुभव दर्ज किए और अब उन्हीं अनुभवों को आप सभी तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है, ताकि देश के अन्य किसान भी इससे प्रेरणा ले सकें।आमतौर पर यह धारणा फैलाई जाती है कि जैविक खेती करने से उपज कम हो जाती है, लेकिन यह सिर्फ एक पहलू है। किसानों का कहना है कि पहले साल उपज में दस फीसदी की कमी आती है, लेकिन दूसरे साल से उपज बढ़ जाती है। जैविक खेती से होने वाली आय के बारे में किसान कहते हैं कि जब हम अपना अनाज लेकर मंडी में जाते हैं और कहते हैं कि हमारा अनाज जैविक विधि से उगाया गया है तो हमें रासायनिक खादों से उगाए गए अनाज से अधिक कीमत मिलती हैं। किसानों का कहना है कि रासायनिक खाद का इस्तेमाल करने से खेती की लागत बढ़ जाती है और आमदनी कम हो जाती है, जबकि जैविक विधि से खेती करने पर लागत कम हो जाती है, साथ ही उपज का दाम भी अधिक मिलता है।
भूसे की पौष्टिकता बढ़ाने के लिए करें यूरिया उपचार
अत्यधिक महंगाई के चलते पशुआहार की अधिक कीमत पशु पालकों के लिए एक समस्या है।
सामान्यत: धान और गेहूं का भूसा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है, लेकिन इनमें पोषक तत्व बहुत कम होते हैं ।
प्रोटीन की मात्रा चार प्रतिशत से भी कम होती है। भूसे का यूरिया से उपचार करने से उसकी पौष्टिकता बढ़ती है और प्रोटीन की मात्रा उपचारित भूसे में लगभग नौ प्रतिशत हो जाती है। उपचार के लिये चार किलो यूरिया को 40 लीटर पानी में घोलें । एक क्विंटल भूसे की लगभग तीन-चार इंच मोटी परत बिछाएं। तैयार 40 लीटर घोल को इस पर हजारे से छिड़कें। फिर भूसे को चल-चल कर या कूदकूद कर दबायें। इस दबाये गये भूसे के ऊपर पुन: एक क्विंटल भूसा फैलाएं और पुन:चार किलो यूरिया को 40 लीटर पानी में घोलकर, हजारे से छिड़काव करें। इस प्रकार एक के ऊपर एक सौ-सौ किलो की 10 पर्ते डालते जायें, घोल का छिड़काव करते जायें और दबाते जायें। उपचारित भूसे को प्लास्टिक शीट से ढक दें और उससे जमीन में छूने वाले किनारों पर मिट्टी डाल दें। जिससे बाद में बनने वाली गैस बाहर न निकल सके।एक टन भूसे के लिए 40 किलो यूरिया और 400 लीटर पानी की आवश्यकता होती है ।
इन बातों का रखें ध्यान . यूरिया को कभी जानवर को सीधे खिलाने का प्रयास नहीं करना चाहिये। यह पशु के लिए जहर हो सकता है। साथ ही भूसे के उपचार के समय यूरिया के तैयार घोल को भी पशुओं से बचाकर रखें ।
. फसल की कटाई के समय यदि खेत में या घर में बिटौरा/कूप बनाकर भूसा रखते हों, तो चट्टा बनाने के समय ही भूसे को उपरोक्त विधि से उपचारित कर सकते हैं। ढेर को गर्मी में 21 दिन व सर्दी में 28 दिन बाद ही खोलें। खिलाने से पहले भूसे को लगभग 10 मिनट तक खुली हवा में फैला दें। निर्देश- किसी प्रशिक्षित व्यक्ति की देखरेख में ही इसका निर्माण किया जाना चाहिए।
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