किसान खेत में पसीना बहा रहा होता है और ब्रोकरों के एसी केबिनों में बैठकर लोग उसकी किस्मत का निर्धारण कर रहे होते हैं। इस खेल से उपभोक्ता तक चीजों के पहुंचते- पहुंचते कीमतों में काफी इजाफा हो जाता है। मसलन किसान को मिली कीमत और उपभोक्ता द्वारा दी गई कीमत के बीच मोटी खाई तैयार हो जाती है। इस तरह के कारोबार में लोग बल्क में घर बैठे चीजें खरीद लेते हैं। एक निर्धारित समय तक खरीदी गई वस्तु उनके गोदाम में तो नहीं आती लेकिन बाजार में उसकी मौजूदगी कम हो जाती है। उस वस्तु का मालिकाना हक एक धनाड्य के हाथों में होता है। थोड़ा मुनाफा मिलते ही वह किसी और को वह वस्तु उतार देता है। वायदा कारोबार में मोटा पैसा लगाने वाले लोग कई चीजों को प्रभावित करते हैं। मौसम की भविष्यवाणियों से लेकर कई तरह के पूर्वानुमान बाजार की तेजी-मंदी को प्रभावित करते हैं। गुजरे रबी सीजन में सरकार गेहूं की बंपर उपज की घोषणा कर रही थी लेकिन एमसीएक्स और एनसीएक्स के अलावा स्थानीय स्तर पर भरसार करने वाले कारोबारी सरकारी आंकड़ों से ऊपर सोचकर चल रहे थे। सरकारें गेहूं खरीद में पिछड़ रही थीं। उपज में 15 से 20 फीसदी की गिरावट हुई और एक ओर गेहूं का निर्यात चलता रहा। इस तरह के कारोबारों में हाथ आजमाने वाले लोगों के पैंतरे सरकारी तंत्र के इंतजामों को धता बताने से नहीं रुकते तो सीधे-साधे किसानों को इनके चंगुल से कौन बचाए। गुजरे साल कारोबारियों ने देशभर में धान किसान को उनकी फसल का वाजिव मूल्य नहीं दिया। मसलन वर्ष 2011 की तुलना में 2012 में धान की कीमतें जानबूझकर गिरा दी गईं और सरकारी एजेंसियों के पास इसका कोई समाधान नहीं था। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के उप महानिदेशक बीज सपन दत्ता से जब इस बावत पूछा गया तो उनका कहना था कि इस तरह का मामला उनके संज्ञान में नहीं है। देश के किसान की फसल की हर साल बढ़ रही लागत के हिसाब से सरकारें समर्थन मूल्य बढ़ाती हैं लेकिन कारोबारियों ने एक वर्ष बाद पूर्व वर्ष के मुकाबले कीमतें गिरा दीं और सरकारी तंत्र चुप रहा। खेती किसानी से प्राप्त होने वाले उत्पाद अब मल्टी कमोडिटी एक्सचेन्ज और नेशनल कमोडिटी एक्सचेन्ज के माध्यम से सटोरियों की गिरफ्त में हैं। किसान को उसकी फसल का वाजिव मूल्य नहीं मिल पाता है। कुल मिलाकर किसान पूरी तरह से सटोरियों के कब्जे में हो जाते हैं। सरकारी तंत्र चुप है। इस खेल पर नजर डाल रही है दिलीप कुमार यादव की यह रिपोर्ट। किसानों के साथ महत्वपूर्ण मोटा कारोबार करने वाले सब्जी आढ़तियों को लेकर कभी आयकर विभाग की बड़ी छापेमारी नहीं होती। इसके चलते आड़तिये बगैर आय का विवरण दर्शाए बही खातों में ही करोड़ों के वारे-न्यारे करते रहते हैं। सब्जी मण्डी में किसान के माल से धन कमाने वाले आड़तियों द्वारा किसानों को कोई सहूलियत नहीं दी जाती। इसके विपरीत वह किसानों की सरलता का लाभ उठाते हैं। वह दिल्ली और निकट की बड़ी मण्डियों में जिंसों की आवक का फोन से पता रखते हैं और मांग के अनुरूप किसानों के माल की जमाखोरी कर बड़ी मण्डियों को बढ़ा देते हैं। कई मामलों में तो वह कारोबारियों की तरह अपने एजेंट छोड़कर किसानों के माल को सस्ते में खरीद लेते हैं और बाद में उन्हें बड़ी मण्डियों को ऊंचे दाम पर बेचते हैं। इस प्रकिया में चंद मिनटों या घण्टों का अंतर होता है। नगदी फसल में भी किसान लुटता है और कारोबारी मालामाल होते हैं। आयकर विभाग की नजर नहीं |
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रविवार, 9 जून 2013
सटोरियों की गिरफ्त में किसान
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