गर्मियों के मौसम में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाने, पेयजल की कमी एवं हरे चारे की अनुपलब्धता जैसे कारणों की वजह से थारपारकर अथवा गिर नस्ल की गायों का पालन लाभकारी सिद्ध हो रहा है। थारपारकर गायों की नस्ल राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर एवं जोधपुर जिलों में मिलती हैं। इनकी कद-काठी मजबूत होने के कारण इनमें उच्च तापमान सहने, सूखे चारे से जीवनयापन करने एवं एक दुग्ध उत्पादन का¶(ब्यांत) में औसतन 1800 से 2500 लीटर दूध देने की क्षमता होती है। इनके दूध में वसा की मात्रा भी देशी गायों की तुलना में अधिक होती है। इसी प्रकार गिर नस्ल की गायें भी राजस्थान के लिए या राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों के लिए मुफीद मानी गईं हैं। यह गाय राजस्थान के अजमेर, जोधपुर, पाली, भीलवाडा एवं गुजरात के काठियावाड़ जिलों में मिलती है। इस नस्ल की गायों की मजबूत कद-काठी होती है जो जंगल में घूमकर अपना भोजन जुटा लेती हैं। इस नस्ल की गायें एक दुग्ध उत्पादन का¶(ब्यांत) में औसतन 1800 लीटर दूध देती हैं। इन दोनों गायों की नस्लों की कुछ खासियतें होने की वजह से भरतपुर जिले में लुपिन फाउण्डेशन ने 230 गाय पशुपा¶कों को उपलब्ध कराई हैं। इसके साथ ही नस्ल सुधार के लिए 12 सांड भी पशुपालकों को मुहैया कराये हैं। इन सांड़ों के प्राकृतिक गर्भाधान विधि द्वारा जिले में गिर व थारपारकर गायों की नस्¶ों को और बढ़ावा मिलेगा। जिन किसानों के पास पर्याप्त हरे चारे, पेयजल एवं संतुलित दाना आदि की व्यवस्था है उनके लिए भैंसपालन अधिक लाभकारी माना गया है। भैंसपालन के लिए हरियाणा की मुर्रा नस्ल की भैंस अधिक उपयोगी सिद्घ होती है। मुर्रा नस्ल की भैंसें हरियाणा के रोहतक, जींद, हिसार एवं पंजाब के पटिया¶ा जिलों में बहुतायत में मिलती हैं। इस नस्ल की भैंसों का रंग का¶ा, आंखें चमकीली, पीठ चौड़ी, उभरा हुआ सिर, सींग गोल व घुमावदार होते हैं जो एक दुग्ध उत्पादन काल (ब्यांत) में औसतन 1500 से 2500 लीटर दूध देती हैं। दूध में वसा की मात्रा 7 से 8 प्रतिशत होती है। इस वजह से अन्य दुधारू पशुओं के दूध के मुकाबले मुर्रा नस्ल की भैंसों का दूध अधिक दर पर बिकता है। मुर्रा नस्ल की भैंसों में दुग्ध उत्पादन की क्षमता अधिक होने को देखते हुए लुपिन फाउण्डेशन ने सामान्य भैंसों के स्थान पर मुर्रा नस्ल की भैंसों को बढ़ावा देने के ¶िए 82 गांवों के 1215 पशुपा¶कों को हरियाणा से मुर्रा नस्ल की भैंसें उपलब्ध कराई हैं। इसके साथ ही हरियाणा व अन्य क्षेत्रों से 4 से 6 माह की मुर्रा नस्ल की 260 पड़िया(बच्चा) भी उपलब्ध कराए हैं जो एक-डेढ़ वर्ष में भैंस बन जाते हैं। इसके अलावा हरियाणा से लाकर पशुपालकों को 97 भैंसा सांड भी दिलाये गए हैं ताकि ग्रामों में ये भैंसा सांड प्राकृतिक गर्भाधान से मुर्रा नस्ल की भैंसों का इजाफा कर सकें। मुर्रा नस्ल की भैंसें अधिक दुग्ध उत्पादन करने के कारण इनकी कीमत भी सामान्य भैंसों के मुकाब¶े कई गुना अधिक होती है। औसतन मुर्रा नस्ल की भैंस 40 से 60 हजार रुपये में मिलती है जो प्रतिदिन 15 से 20 लीटर दूध आसानी से दे देती हैं। मुर्रा नस्ल के भैंसपालन में सबसे बड़ा लाभ यह भी है कि इसकी एक से डेढ़ वर्ष की पड़िया (बच्चा) 25 से 30 हजार रुपये में आसानी से बिक जाती है। मुर्रा नस्ल का नर बच्चा(पाड़ा) भी दो-तीन वर्ष में भैंसा बन जाता है जो 50-60 हजार रुपये में आसानी से बिक जाता है। भरतपुर जि¶े में मुर्रा नस्ल की भैंसों को बढ़ावा देने और नस्ल सुधार कार्यक्रम में इजाफा करने के ¶िए नाबार्ड ने लुपिन को अम्ब्रेला प्रोजेक्ट फॉर नेचुरल रिसोर्स मैनेजमेंट (यूपीएनआरएम) परियोजना भी स्वीकृत की है। इसमें वैज्ञानिक विधि से पशुपालन करने, पशु नस्ल सुधार कार्यक्रम संचा¶ित करने, बीमार पशुओं का इलाज करने, गोबर गैस संयंत्र स्थापित कराने, घरों में धुंआ रहित चूल्हे बनाने आदि कार्य शामिल हैं। स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल किस्मों का चयन और विकास ही बढ़ाएगा पशुपालन का मुनाफा सफलता की कहानी |
किसान भाइयों को अत्याधुनिक खेती की तकनीकों की जानकारी मिलने का सरल साधन।
रविवार, 9 जून 2013
नस्ल सुधार को समङों पशुपालक
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