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गुरुवार, 10 मार्च 2011

गिरधर के रस रंग में भीग रह्यौ चहुंधा बरसानौ


बरसान की होली के साथ 14 मार्च से शुरू होगी रंगो की फुहार
अगले दिन नंदगांव में होगी परंरागत होली
इसी के साथ समूचे ब्रज में बहने लगेगी होली की बहार
मथुरा। ‘उड़त गुलाल लाल भए बदरा, केसर रंग छिड़काई, मानो इंदर राजा झड़ी लगाई, ब्रज में हरि होरी मचाई’। यही है ब्रज की होली का मर्म, आनंद और मकरंद। होली की ठिठोली, लाठी और कोड़ों की मार के बीच उड़ते रंग बिरंगे गुलाल के बीच होरी ‘खेलत नंद किशोर हो होरी खेलत’ के बोल मुखरित होते हैं। होली का यह अद्भुत आनंद संभवतः सहस्त्राब्दियों पूर्व नंद बाबा के प्रिय लाला ‘श्रीकृष्ण’ ने गवाल-बालों सहित बृषभान दुलारी श्रीलाडिली जी ‘राधा’ व उनकी सखी सहेलियों के संग होली खेलकर प्राप्त किया होगा। यही कारण है कि फाल्गुन के इस मद मस्त महीने में एक तरफ मौसम अंगड़ाइयां लेता है देश विदेश के हजारों लोग ब्रज में डेरा डाल देते हैं। वसंत पंचमी से हाली के बाद तक पचास दिन तक चलने वाले फाग महोत्सव के अनेकानेक कार्यक्रमों लोग सुध बुध खोकर आनंद की रसधार में गोता लगाते हैं।
प्रतिवर्ष  माघ माह की शुक्ल पंचमी के अवसर पर ठाकुर लाड़िली जी महाराज के मंदिर में होली का ड़ांढ़ा गड़ने के बाद ब्रज मण्डल के मंदिरों में समाज गायन ‘होली के शस्त्रीय गीत’ का जो सिलसिला प्रारंभ होता है वह फाल्गुन पूर्णिमा के बाद भ्ज्ञी जारी रहते हैं। आइए, चलें उस गंाव में जहां से ब्रज की प्रख्यात बहुरंगी होलियों का शुभारंभ होता हैै। जीहां, बरसाना ही वह गांव है जो आपको लाठियों के बर्बर प्रहार के बीच भी भक्ति रस के सागर में गोते लगाने के लिए मजबूर कर दते हैं। फाल्गुन शुक्ल नवमी इसबार 14 मार्च को बरसाना की हुरियारिनों से होली खेलने नंदगांव के हुरयिार परंपरागत तरीक से आते हैं। इससे पूर्व वह बरसाना से करीब तीन कोस दूरी पर स्थित नंदगांव से बरसाना को चलने से पूर्व नंदभवन पर एकत्र होते हैं। नहां नटवर नागर श्रीकृष्ण उनके भाई बलराम जी की प्रतिमा के समक्ष माता यशोदा से हाली खेलने जाने की आज्ञा मांगते की परंपरा का निर्वहन करते हैं। उसके बाद नंदीश्वर महाराज की उपासना करते हुए नंद बाबा की चौपाल से श्रीकृष्ण स्वरूप ध्वज को साथ लेकर रास रंग में गोते लगाते हुए राधा नगरी बरसाना की ओर प्रस्थान करते हैं। संकेत गांव में कुछ समय विश्राम करने के उपरान्त यात्रा पुनः प्रारंभ होती है।
अब जारा इनकी वेशभूषा पर नजर डाली जाए। हरियारे बिल्कुल रणक्षेत्र में जाने वाले योद्धा की तरह निकलते हैं। हाथ में लाठियों की मार से बचने के लिए मजबूत ढ़ाल होती है। दूसरे हाथ मंे रंग बरसाने के लिए लम्बी पिचारी लिए हुरियार आम दिनों से अलग परंपरागत वस्त्र पहने होते हैं। तीर कामन की जगह कमर में रंग, अबीर, गुलाल की पोटलियां होती हैं। धोती-कुर्ता के साथ कमर में पटका बांधे इन अनुपम योद्धओं की पगड़ी शोभा के लिए कम सिर की सुरक्षा के लिए ज्यदा होती है। पुरातन परंपरा के अनुसार नंदगांव के यह हुरियार प्रिया कुण्ड पहुंचते हैं। यहां स्नानोपरांत ठंडाई आदि छानी घोटी जाती है। इधर बरसाना का गोस्वामी समाज रंगील गली से होकर चौपई ‘शोभायात्रा’ निकालते हुए नंदगांव के हुरियारों के स्वागत के लिए प्रियाकुंड मार्ग पर पहुंच जाता है। तब लगता है कि उमंग और अनंद की असंख्य तरंगों का सैलाब उमड़ पड़ा है। दोनांे ओर के वरिष्ठ गोस्वामीजन गले मिलते हैं और शुरू हो जाती है रंगों की बौछार। मिट जाता है छोटे- बडे़ का भेद और सभी रंग की तरंग में सराबोर हो जाते हैं।
तदोपरांत नंदगांव के हुरियार टोलियों में अबीर गुलाल उड़ाते हुए गहवर वन की परिक्रमा कारते हैं। मध्य में ऊंची पहाड़ी पर स्थिति लाड़िली जी श्रीराध के मंदिर के दर्शन करते हैं। यहीं से टेसू के रंग की बरसात होने लगती है। परंपरागत शास्त्रीय गान ‘ढ़प बाजै रे लाल मतवारे कौ’ का गायन होने लगता है। नंदगांव के हुरियार भंग की तरंग में गोते लगाते हुए रंगीली गली पहुंच जाते हैं। यही वह स्थल है जो सदियों से लठामार होली का युद्ध स्थल बन जाता है।
इधर हुरियारिनें सायंकाल बरसान की रंगीली गली में खेली जाने वाली इस लठामार होली की तैयारी प्रातः सेही करने लगती हैं। हुरियारों का इसी स्थल  पर परंपरागत गालियों से बरसाना की हुरियारिन स्वागत करती हैं। हुरियार ‘ फाग खेलन बरसाने आए हैं, नटवर नंद किशोर’ का गायन करते हैं तो हरियारिन होली खेलन आयौ श्याम आज जाकूं रंग मंे बोरौ रे’ का गायन करती हैं। भीड़ के एक छोर से गोस्वामी समाज के लोग परंरागत बंब आदि वाद्यों के साथ माहौल को शास्त्रीय होली गायन से रंगीला बनाते  रहते हैं। ढ़प, ढ़ोल, मृदंग की ताल पर नाचते गाते दानों दलों में हंसी- ठिठोली होने लगती है। इसी बीच मौका पाकर नंदगांव के हुरियार अपनी पिचकारियों से बरसाना की हुरियारिनों को रंगना चाहते हैं। बस यहीं से शुरू हो जाता है अद्भुत युद्ध ‘लठामार होली’। इसे देखने के लिए दुनिया भर से आए राधारानी के भक्त पर्यटक बरसान की गलियों में छज्जों पर, अटारियों पर, जहां तक नजर जाती है, एक दूसरे पर गिरते पड़ते दिखाई देते हैं। इस बीच हुरियारिन अपनी पूरी ताकत से हुरियारों पर लट्ठ बजाने लगती है। लाठियों की तड़तड़ाहट रंगों से बने बादलों में दूर तक सुनाई देने लगती हैं। नंदगांव के हुरियार अपनी ढ़ालों से लाठियों के वारों को भरसक बचाने का प्रयास करते हैं लेकिन किसी न किसी का रक्त निकल ही जाता है। करीब एक घण्टे से अधिक तक चलने वाले इस युद्ध के चरम पर पहुंचने पर संपूर्ण वातावरण अद्भुत उल्लास में झूमता हुआ प्रतीत होता है। लोग गा उठते हैं ‘गिरधर के रस रंग में भीग रह्यो चहुंधा बरसानौ’। इसकी परिणति नंदगांव के हुरियारिनों द्वारा मांफी मांगने से होती है और अनंद का उत्कर्ष देखिए मांफी देते हुए हुरियारिन अगले बरस पुनः इसी दिन होली खेलने आने का न्योता कुछ इस अंदाज में ‘नैन नचाय कहो मुसकाय, लला फिर अइयो खेलन होरी’ का गायन करते हुए देती हैं। रंगीली गली की रज को अपने मस्तक पर लगाकर हुरियारे स्वयं को धन्य समझते हुए नंदगांव वापस लौट जाते हैं। इधर हुरियारिन अपनी जीत की सूचना देने के लिए राधारानी के मंदिर की ओर दौड़ लगाती हैं। वापस जाते हुए हुरियारे बरसाना के लोगांे को नंदगांव में होली खेलने आने का न्योता देना नहीं भूलते। अगले दिन फाल्गुन दशमी इस बार 15 मार्च को एकबार फिर इसी युद्ध का आयोजन होगा। फर्क सिर्फ इतना होगा कि तब नंदगांव के स्थान पर नंदगांव आनंद और भक्ति के संगम का साक्षी बनता है। यहां बरसाना के हुरियार होते हैं और नंदगांव की हुरियारिन। लोक मान्यता है कि जब तक ब्रज मण्डल है तब तक जनमानस को रस रंग में सराबोर करने वाला यह क्रम जारी रहेगा। 
कब शुरू हुई बरसाना की होली
मथुरा। बरसाना में इस अद्भुत होली की शुरूआत करीब साढे़ चार सौ वर्ष पूर्व  फाल्गुन शुक्ला नवमी के दिन दक्षिण भारत के प्रख्यात कृष्णभक्त ब्रजाचार्य श्रील नारायण भट्ट ने की थी। संभवतः समाज की विपरीत परिस्थितियों में यह यहां की पहली होली थी। तभी से ब्रज में होली की परंपरा कायाम है। बरसाना भगवान कृष्ण की आल्हादिनी शक्ति राधारानी की बाल्य व किशोर कालीन लीला स्थली के अलावा राधा-कृष्ण की प्रणय भूमि भी रही है। यहां की होली दुनिया भर में प्रसिद्ध है। ब्रज की होली की आत्मा बरसाना में बसती है यह कहा और माना जाता है। बरसाना-नंदगांव की होली में भाग लेेने के लिए हुरियारिन एक माह पूर्व से अपने लहंगा चुनरी को तैयार करती हैं। उधर लट्ठों को भी छील छील कर चिकना किया जाता है। उन्हें रंगा जाता है और तेल पिलाया जाता है। मंदिर की तैयारी भी कम नहीं होतीं। बसंत पंचमी से ही बरसाना सहित समूचे ब्रज के गांवों तक मंे होली का डंाडा गढ़ जाता है। हर मंदिर में ठाकुर व श्रद्धालुओं के मस्तक पर चंदन के स्थान पर गुलाल का टीका लगाया जाने लगता है। बरसाना में लठाकर होली से पूर्व पांडे लीला व लड्डू होली भी आकर्षण का केन्द्र होती है।

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