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रविवार, 13 मार्च 2011

साबुन के बबूलों में धुलती जिंदगी

डिटर्जेंट साबुन से कपड़े धोने से चौगुना पानी होता है खर्चसिंथैटिक रसायन पानी के साथ बहकर कृषि एवं मानव स्वास्थ्य को करते हैं प्र•ाावित
 नहीं जागे तो दस साल बाद नहीं मिलेगा मीठा पानी
मथुरा। डिटर्जेंट साबुन में जिंदगी घुल रही है। आयल सोप के मुकाबले डिटर्जेंट ने पानी की खपत को चौगुना कर दिया है। विशुद्ध सिंथेटिक रसायनों से तैयार साबुन खेती योग्य जमीन एवं मानव स्वस्थ्य को प्रभावित कर रहा है। शहर हो या देहात पानी की खपत में विशेष रॉल है। कुल जल श्रोतों में 70 प्रतिशत खारी पानी वाली ब्रज भूमि की जनता के लिये यह नाशूर बन सकती है। पानी की गुणवत्ता पहले से ही खराब है।
डिटर्जेंट साबुनों को पैट्रो के मिकल्स से बनाया जाता है। इनके प्रभाव को कम करने के लिये न्यूट्रलाइज किया जाता है। इसी लिये इनमें झाग ज्यादा आते हैं। यह झाग आसानी से निकलते भी  नहीं। इसीलिये कई बार पानी से कपड़ों को निकालना पड़ता है। लोग पानी की अहमियत नहीं समझते। इसी लिये उनका ध्यान इस ओर नहीं जाता। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी आरके सिंह के अनुसार डिटर्जेंट पानी और प्रकृति दोनों के दुश्मन हैं। पानी में बहकर डिटर्जेंट अवयव मछली आदि में जाते हैं। इन्हें मनुष्य खाते हैं और उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। यह पानी फसलों और जमीनों को भी  प्रभावित करता है।
हानिकारक तत्व मैन्गीज, क्लारोइड्स साइकिल होते रहते हैं जो गठिया आदि रोगों के कारण बनते हैं।
आयल सोप साबुन नेचुरल पाम आयल, सोयाबीन, राइज आयल आदि से बनते हैं। इनमें कास्टिक सोड़ा कपड़ों की सफाई के लिये मिलाया जाता है। तेलों में मिलकर यह कास्टिक सोडियम बन जाता है। यह प्रकृ ति के लिये कम नुकसानदेय एवं कम पानी के उपयोग वाला होता है। इसी लिये कम पानी वाले पहाड़ी इलाकों एवं राजस्थान में आयल सोप साबुन ज्यादा बिकते हैं।
नगर में लगातार  बढ़ रही पानी की खपत
मथुरा। नगर पालिका के जल कल अभयंता डीके शुक्ला ने बताया कि पांच साल पहले शहर के लोगों को करीब 30 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) पानी की जरूरत रहती थी जो वर्तमान में 50 एमएलडी से ज्यादा हो गई है। पानी की खपत में 40 प्रतिशत का इजाफा अकेले शहर में हुआ है। इसमें बहुत बड़ा योगदान डिटर्जेंट का आंका गया है।
पहले से ही बिगड़ा है पानी का रासायनिक संतुलन
मथुरा। जल निगम के प्रयोगशाला सहायक श्रीचंद ने बताया कि कई इलाकों के  भूगर्भ  जल में नाइट्रेट का प्रभाव मिलता है। जिले का 60-65 प्रतिशत इलाका अधिक टीडीएस से प्रभावित है। आईएसआई स्टेंडर्ड 15 सौ मिलीग्राम प्रतिलीटर अधिकतम है। यहां 20 एमजी प्रतिलीटर गोवर्धन, सोंख, फरह, छाता आदि कई क्षेत्रों में टीडीएस मिलता है। अधिक टीडीएस क्लोराइड, सल्फेट, हार्डनैस आदि का संतुलन भी  पानी बिगाड़ता है।
कितना है जिले के देहात में पानी
मथुरा। भूगर्भ  जल विभाग के उमेश बाबू ने बताया कि बलदेव ब्लाक में भूगर्भ  में कुल जितना पानी उपलब्ध है उसमें से 76.20 प्रतिशत लोग खर्च कर चुके हैं। इसी तरह छाता में कुल जल से 44.26, चौमुहां ब्लाक क्षेत्र में 50, फ रह में 68, गोवर्धन 52, मांट 58, मथुरा 59, नंदगांव 45, नौहझील-70 एवं राया में 83 प्रतिशत भूगर्भ  जल का दोहन हो चुका हं। कुल भूगरभ  जल का 30 प्रतिशत ही पेयजल है। यदि इसका किफायती से उपयोग नहीं किया तो खारी पानी भी  नहीं मिलेगा।
क्या कहते हैं निर्माता-विक्रेता
मथुरा। उत्तर भारत को आयल सोप बनाकर उपलब्ध कराने वाले डाक्टर सोप कंपनी के मैनेजिंग डायरैक्टर बीके जैन ने बताया कि उकनी कंपनी का करीब 150 टन साबुन हर माह जाता है। इसमें से 70 प्रतिशत आयल सोप व 30 प्रतिशत डिटर्जेंट बिकता है। उन्होंने यह भी  बताया कि देश में खाद्य तेलों की कमी के चलते उन्हें भी  आयल सोप बनाने के लिये सारा तेल आयातित करना पड़ता है। डिटर्जेंट बनाने में ऐसी दिक्कत नहीं। उनके ग्राहक कम पानी वाले पहाड़ी आदि इलाके  में हैं, इस लिये आयल सोप बनाया जा रहा है। वह खुलकर कहते हैं कि डिटर्जेंट लोगों की चाहत बन गया है लेकिन इससे कपड़े धुलने में पानी तीन गुना ज्यादा खर्च होता है। इधर मथुरा जिले में हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड के सभी  डिटर्जेंट उत्पादों की खपत 27 लाख रूपए मामिक की बताई गई है। घड़ी 12 लाख रुपये, डाक्टर एण्ड जेंडल के टाइड आदि उत्पाद 4 लाख एवं लोकल कंपनियों के डिटर्जेंट की सेल 10 लाख रुपये मासिक की है।

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