ब्रज में अनूठी है हुरंगों की परंपरा
सब जग होरी या ब्रज होरा।ह्ण यह लोकोक्ति ब्रज में होली के बाद भी गांव-गांव में होने वाले हुरंगों को देखकर चरितार्थ होती है। हुरंगा होली के बाद भी होली के कार्यक्रमों का ही एक हिस्सा है। जितने उल्लास के साथ देशभर में फल्गुन पूर्णिमा के दिन होली मनाई जाती है उतने ही आनंद के साथ बलदेव, गोकुल, महावन, जाब, बठैन आदि में उसके बाद भी हुरंगों के आयोजन जारी रहते हैं। मान्यता है कि ब्रज मण्डल में स्थान-स्थान पर होने वाले इन आयोजनों में श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलदाऊ भी छोटे बड़े का भेद भूलकर राधा रानी के संग होली खेलने को उतर आए। बलदेव कस्बे में स्थित दाऊजी मंदिर में होने वाले हुरंगे में हुरियारिन जेठ-ससुर का ख्याल त्याग देती हैं और हुरियार के कपड़े फाड़ पोतना ह्यकोड़ाह्ण बनाकर दनादन होली खेलने वाले श्रीकृष्ण और सखा स्वरूप पुरुषों पर बरसाती चली जाती हैं। यह वह समय होता है जब अपने पराए का भेद नहीं होता। एक ओर से होली के पदों का गायन चल रहा होता है। आसमान में बीच-बीच में मंदिर की छतों पर बैठे लोग गुलाल बरसाते जाते हैं और प्रांगण में बनी दर्जनों हौदों में भरा टेसू रंग बालटियां भर-भर कर एक दूसरे के ऊपर डाला जाता है। ब्रज के हुरंगों में बलदेव और जाब-बठैन का हुरंगा प्रमुख माने जाते हैं। इसीलिए यहां आज भी लोग देश-विदेश से अनायास ही खिंचे चले आते हैं। चैत्र कृष्ण द्वितीया के दिन भोर से ही दाऊजी मंदिर में मानव समुद्र उमड़ने लगता है। यहां के हुरंगे की तैयारी बड़े ही रोचक ढंग से होती है। यहां टेसू रंग की बरसात के साथ कोड़ों से पड़ने वाली मार का उपचार भी साथ के साथ किया जाता है। टेसू रंग के तैयार करते समय ही उसमें फिटकरी व चूना मिलाया जाता है। 11 बजे सारी तैयारियां होने के बाद ब्रजराज के अभिनव स्वरूपक के दर्शन उपरांत मंदिर के मुखिया द्वारा हरी झंडी दिखाई जाती है। होली के मतवारे स्त्री पुरुष यहां भंग की तरंग में गोते लगाते हुए आते हैं। वहीं राधा रानी को होली खेलने का न्योता देने वाले ब्रजराज अपनी विशेष वेशभूषा में दर्शन देते हैं। हुरंगे से पूर्व बलराम, रेवती, राधा और कृष्ण स्वरूप बने बच्चों को मंदिर के एक छोर पर मंच पर बिठाया जाता है। यहां बैठे लोग गुलाल की बरसात करते रहते हैं। लोग गा उठते हैं कि ह्यऐसो रंग बरसायौ बलराम, बिरज आनंद भयो।ह्ण इस बीच मंदिर के जगमोन में बैठे गुसाईं समाज के लोग परंपरागत लोकगीत और शास्त्रीय गीतों का गायन उत्साह के साथ करने लगते हैं। ह्यब्रज मण्डल में आज मची होरी, खेलत बलदाऊ लाड़िलौ, संग लिए रेवती जोरीह्णआदि के गायन के साथ ही आनंद रस की बरसात होने लगती है। टेसू के रंग से मंदिर प्रांगण भर जाता है। पहले बाल्टियों से रंग डालने की शुरुआत चर्म पर तब पहुंचती है जब हुरियारिन पुरुषों को मंदिर में जमा हुए रंग में धकेलने लगती हैं। एक घण्टे के हुरंगे के हुड़दंग के बाद हुरियारे अपने सबसे चतुर साथी को पकड़कर हुरियारिनों को सोंप आते हैं। इसकी हुरियारिन जमकर धुनाई करती हैं। अंत में ठाकुरजी की पताका लूटने की परंपरा शुरू होती है। इसके बाद ग्वाल गा उठते हैं कि ह्यहारी रे गोरी, लौट चली, जीत गए ब्रज ग्वालह्ण इससे जोश में भरी महिलाएं पताका लूटने का प्रयास रकती हैं और जीतने पर वे ह्यहारे रे रसिया, लौट चले, जीत चलीं ब्रजनारह्ण का गायन करते हुए घर लोट जाती हैं। इसी दिन यानी चैत्र कृष्णा द्वितीया कोसीकलां से पांच किलोमीटर दूर जाब गांव में हुरंगा होता है। यह गांव राधारानी की ससुराल माना जाता है। यहां राधारानी और उनके आध्यात्मिक प्रियतम श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलदाऊ के बीच खेली गई होली की पुनरावृत्ति होती है। जाब-बठैन के हुरंगे की खासियत यह है कि यहां की महिलाएं जेठ के साथ होली तो खेलती हैं किंतु अपना चेहरा उन्हें नहीं देखने देती। वह उनके सामने नहीं आतीं। घूंघट उनके चेहरे पर हुरंगे के दौरान भी बना रहता है। जेठ के साथ होली खेलने की इस अनूठी परंपरा को देखने दूरदराज से लोग आते हैं। महिलाएं होली खेलने मैदान में जाते समय अपने साथ गुलाल, एक छड़ी व एक दर्पण ले जाती हैं। जेठ की ओर अपना मुंह किए बगैर वह दर्पण में जेठ की छवि देखकर उस दिशा में गुलाल फेंकती हैं। जब कोई हंसी ठिठोली वाला उनके पास आता है तो उसे छड़ी से फटकार देती हैं। यहां हुरियारे महिलाओं की छड़ियों की मार से खुद को अरहर की झवों से बचाते हैं। जाब के हुरंगे के अगले दिन जाब के पुरुष बठैन गांव की महिलाओं के साथ होली खेलने उनके गांव जाते हैं। कहा जाता है कि जब राधारानी की ससुराल जाब पहुंचे दाऊ जी के साथ हुरियारिनों ने होली खेलने से मना कर दिया तो वह कोस भर दूर जाकर एक स्थान पर बैठ गए और वहां से बहुत मनुहार के बाद ही वापस लौटे। जहां दाऊ जी बैठे उस स्थान को बठैन कहा जाता है। जाब नाम इस लिए पड़ा कि वहां श्रीकृष्ण ने अपनी लीलाओं के बीच राधाजी के पांव में जाबक ह्यमहावरह्ण लगाया। इसीलिए इस गांव को शुरू में जाबक कहा गया जो कालान्तर में अपभं्रश होकर जाब रह गया। - दिलीप कुमार यादव
केसे सुरु हुई बरसना की होली
ब्रजमंडल गौ संवर्धन संस्कृति का ऊजर्स्वी शीर्ष बन जनप्रतिनिधित्व की यश पताका फहराने वाला वह प्रदेश रहा है जो संपूर्ण भारतवर्ष के लिए एक अमोध वरदान बन भागवत धर्म की मुखरित मंजूषा को संरक्षित रखे हुए है। ब्रजलोक धर्म की पाठशाला में निष्णात लोक नायक श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल से ही तात्कालिक ब्रजमंडल में अपने अभिनव प्रयोगों द्वारा लोक मानस एवं लोकभावनाओं को जिस तरह राज्यशक्ति पर सर्वोच्च शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया वह आज तक राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ एवं प्रशंसकों के लिए प्रकाश स्तंभ है और भटके हुए जन सागर को सटीक एवं उपयुक्त दिशा दिखा रहा है। यथा: देवताओं के राजा इंद्र की पूजा को रुकवाकर पर्यावरण रक्षक देव श्री गोवर्धन की पूजा कराई, जो सामान्य जनों द्वारा सर्वोच्च सत्ता को खुली चुनौती का विश्व राजनीतिक इतिहास का प्रथम उदाहरण है।
सब जग होरी या ब्रज होरा।ह्ण यह लोकोक्ति ब्रज में होली के बाद भी गांव-गांव में होने वाले हुरंगों को देखकर चरितार्थ होती है। हुरंगा होली के बाद भी होली के कार्यक्रमों का ही एक हिस्सा है। जितने उल्लास के साथ देशभर में फल्गुन पूर्णिमा के दिन होली मनाई जाती है उतने ही आनंद के साथ बलदेव, गोकुल, महावन, जाब, बठैन आदि में उसके बाद भी हुरंगों के आयोजन जारी रहते हैं। मान्यता है कि ब्रज मण्डल में स्थान-स्थान पर होने वाले इन आयोजनों में श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलदाऊ भी छोटे बड़े का भेद भूलकर राधा रानी के संग होली खेलने को उतर आए। बलदेव कस्बे में स्थित दाऊजी मंदिर में होने वाले हुरंगे में हुरियारिन जेठ-ससुर का ख्याल त्याग देती हैं और हुरियार के कपड़े फाड़ पोतना ह्यकोड़ाह्ण बनाकर दनादन होली खेलने वाले श्रीकृष्ण और सखा स्वरूप पुरुषों पर बरसाती चली जाती हैं। यह वह समय होता है जब अपने पराए का भेद नहीं होता। एक ओर से होली के पदों का गायन चल रहा होता है। आसमान में बीच-बीच में मंदिर की छतों पर बैठे लोग गुलाल बरसाते जाते हैं और प्रांगण में बनी दर्जनों हौदों में भरा टेसू रंग बालटियां भर-भर कर एक दूसरे के ऊपर डाला जाता है। ब्रज के हुरंगों में बलदेव और जाब-बठैन का हुरंगा प्रमुख माने जाते हैं। इसीलिए यहां आज भी लोग देश-विदेश से अनायास ही खिंचे चले आते हैं। चैत्र कृष्ण द्वितीया के दिन भोर से ही दाऊजी मंदिर में मानव समुद्र उमड़ने लगता है। यहां के हुरंगे की तैयारी बड़े ही रोचक ढंग से होती है। यहां टेसू रंग की बरसात के साथ कोड़ों से पड़ने वाली मार का उपचार भी साथ के साथ किया जाता है। टेसू रंग के तैयार करते समय ही उसमें फिटकरी व चूना मिलाया जाता है। 11 बजे सारी तैयारियां होने के बाद ब्रजराज के अभिनव स्वरूपक के दर्शन उपरांत मंदिर के मुखिया द्वारा हरी झंडी दिखाई जाती है। होली के मतवारे स्त्री पुरुष यहां भंग की तरंग में गोते लगाते हुए आते हैं। वहीं राधा रानी को होली खेलने का न्योता देने वाले ब्रजराज अपनी विशेष वेशभूषा में दर्शन देते हैं। हुरंगे से पूर्व बलराम, रेवती, राधा और कृष्ण स्वरूप बने बच्चों को मंदिर के एक छोर पर मंच पर बिठाया जाता है। यहां बैठे लोग गुलाल की बरसात करते रहते हैं। लोग गा उठते हैं कि ह्यऐसो रंग बरसायौ बलराम, बिरज आनंद भयो।ह्ण इस बीच मंदिर के जगमोन में बैठे गुसाईं समाज के लोग परंपरागत लोकगीत और शास्त्रीय गीतों का गायन उत्साह के साथ करने लगते हैं। ह्यब्रज मण्डल में आज मची होरी, खेलत बलदाऊ लाड़िलौ, संग लिए रेवती जोरीह्णआदि के गायन के साथ ही आनंद रस की बरसात होने लगती है। टेसू के रंग से मंदिर प्रांगण भर जाता है। पहले बाल्टियों से रंग डालने की शुरुआत चर्म पर तब पहुंचती है जब हुरियारिन पुरुषों को मंदिर में जमा हुए रंग में धकेलने लगती हैं। एक घण्टे के हुरंगे के हुड़दंग के बाद हुरियारे अपने सबसे चतुर साथी को पकड़कर हुरियारिनों को सोंप आते हैं। इसकी हुरियारिन जमकर धुनाई करती हैं। अंत में ठाकुरजी की पताका लूटने की परंपरा शुरू होती है। इसके बाद ग्वाल गा उठते हैं कि ह्यहारी रे गोरी, लौट चली, जीत गए ब्रज ग्वालह्ण इससे जोश में भरी महिलाएं पताका लूटने का प्रयास रकती हैं और जीतने पर वे ह्यहारे रे रसिया, लौट चले, जीत चलीं ब्रजनारह्ण का गायन करते हुए घर लोट जाती हैं। इसी दिन यानी चैत्र कृष्णा द्वितीया कोसीकलां से पांच किलोमीटर दूर जाब गांव में हुरंगा होता है। यह गांव राधारानी की ससुराल माना जाता है। यहां राधारानी और उनके आध्यात्मिक प्रियतम श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलदाऊ के बीच खेली गई होली की पुनरावृत्ति होती है। जाब-बठैन के हुरंगे की खासियत यह है कि यहां की महिलाएं जेठ के साथ होली तो खेलती हैं किंतु अपना चेहरा उन्हें नहीं देखने देती। वह उनके सामने नहीं आतीं। घूंघट उनके चेहरे पर हुरंगे के दौरान भी बना रहता है। जेठ के साथ होली खेलने की इस अनूठी परंपरा को देखने दूरदराज से लोग आते हैं। महिलाएं होली खेलने मैदान में जाते समय अपने साथ गुलाल, एक छड़ी व एक दर्पण ले जाती हैं। जेठ की ओर अपना मुंह किए बगैर वह दर्पण में जेठ की छवि देखकर उस दिशा में गुलाल फेंकती हैं। जब कोई हंसी ठिठोली वाला उनके पास आता है तो उसे छड़ी से फटकार देती हैं। यहां हुरियारे महिलाओं की छड़ियों की मार से खुद को अरहर की झवों से बचाते हैं। जाब के हुरंगे के अगले दिन जाब के पुरुष बठैन गांव की महिलाओं के साथ होली खेलने उनके गांव जाते हैं। कहा जाता है कि जब राधारानी की ससुराल जाब पहुंचे दाऊ जी के साथ हुरियारिनों ने होली खेलने से मना कर दिया तो वह कोस भर दूर जाकर एक स्थान पर बैठ गए और वहां से बहुत मनुहार के बाद ही वापस लौटे। जहां दाऊ जी बैठे उस स्थान को बठैन कहा जाता है। जाब नाम इस लिए पड़ा कि वहां श्रीकृष्ण ने अपनी लीलाओं के बीच राधाजी के पांव में जाबक ह्यमहावरह्ण लगाया। इसीलिए इस गांव को शुरू में जाबक कहा गया जो कालान्तर में अपभं्रश होकर जाब रह गया। - दिलीप कुमार यादव
केसे सुरु हुई बरसना की होली
ब्रजमंडल गौ संवर्धन संस्कृति का ऊजर्स्वी शीर्ष बन जनप्रतिनिधित्व की यश पताका फहराने वाला वह प्रदेश रहा है जो संपूर्ण भारतवर्ष के लिए एक अमोध वरदान बन भागवत धर्म की मुखरित मंजूषा को संरक्षित रखे हुए है। ब्रजलोक धर्म की पाठशाला में निष्णात लोक नायक श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल से ही तात्कालिक ब्रजमंडल में अपने अभिनव प्रयोगों द्वारा लोक मानस एवं लोकभावनाओं को जिस तरह राज्यशक्ति पर सर्वोच्च शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया वह आज तक राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ एवं प्रशंसकों के लिए प्रकाश स्तंभ है और भटके हुए जन सागर को सटीक एवं उपयुक्त दिशा दिखा रहा है। यथा: देवताओं के राजा इंद्र की पूजा को रुकवाकर पर्यावरण रक्षक देव श्री गोवर्धन की पूजा कराई, जो सामान्य जनों द्वारा सर्वोच्च सत्ता को खुली चुनौती का विश्व राजनीतिक इतिहास का प्रथम उदाहरण है।
तत्कालीन ब्रज जो असुरों, यक्षों एवं नागवंश के पूर्णतया अधीन था, के प्रधान नाग कालिनाग का दमन कर यमुना को प्रदूषण मुक्त करवाया। यह जन चेतना जागरण अभियान ही तो था। ब्रज के ग्वाल वालों को साथ लेकर मथुरा के भोजवंशी राजा कंस, जो कि जरासंध जैसे शक्तिशाली राजा का दामाद था, का वध इतिहास की पहली जन-क्रांति थी।
अब आइये बरसाना की लठामार होली पर चर्चा करें। यदि सतयुग से द्वापर के मध्यकाल तक के इतिहास पर विहंगम दृष्टि डाली जाये तो स्त्री भोग्या के रूप में स्वीकार्य रही है अन्यथा गौतम ऋषि जो मन:दृष्टा ऋषि थे, की बेखरी वाणीमय अहिल्या ही दूषित एवं शापित क्यों मानी गई? शकुन्तला, देवयानी आदि की क्या बात की जाए, स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने वाले श्रीराम ने भी मात्र एक तीसरे व्यक्ति(धोबी) के कहने पर पवित्रात्मा भूमा श्री सीता को भूमि में समा जाने को विवश कर दिया। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। तारा के कारण बाली का बध कर तारा सुग्रीव को, मंदोदरी विभीषण को, कुंती, द्रोपदी आदि विचारणीय विषय ही नहीं अपितु यक्ष प्रश्न हैं नारी अस्मिता संरक्षण के।
द्वापर के अंतिम चरण में लोकनायक श्री कृष्ण का अवतरण होता है! इन बुजरुवा रुढ़ियों की जनमानस की आह से जजर्र हुई लौह श्रंखलाओं को तोड़ने के लिए जो मात्र बंधन का भ्रम पैदा कर मृग मरीचिका की तरह निरीह लोकजनों एवं विशेष रूप से नारी जाति को बांधे हुई है। अपने अवतरण का कारण स्वयं श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से सर्वधर्म प्रमाण शिरोपणि ग्रंथ श्रीमद्भगवत गीता में शंखनाद कर कहा है- परित्राणाय साधुनामं। बताइये नारी जाति से बड़ा साधु इस सृष्टि में कोई है? भोग संस्कृति में रचे पचे असुर, नाग, यक्ष एवं तात्कालिक धर्म के सरमाएदार ऋषि-मुनि सदा से ही नारी को भोग्य के साथ शोषित एवं मजबूर बना रहे थे। इसलिए नारी अस्मिता के एकमात्र संरक्षक ब्रज के कृष्ण ने नारी को भोग्या नहीं वंदनीय बनाकर श्रीमद्भगवत में रासलीला में कहा ह्यन पारयेहमं.. और संदेश दियाह्ण यदि अबला का चोगा नारी ना उतारेगी तो वह हमेशा ही बलात्कार पीड़ित होती रहेगी क्योंकि पुरुष प्रकृति तो हमेशा नारी के तन की भूखी है। पंच कन्या की उपज इसी मानसिकता की देन है।
ब्रज के कनुआकृष्ण ने अपनी आराध्या एवं प्राणाल्हादिनी श्रीराधा जो उपनिषदों में आदि शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हैं, को संग लेकर तात्कालिक परिस्थितियों में नारी सशक्तीकरण हेतु एक विधिवत एवं शास्त्रोक्त कार्यक्रम का श्रीगणोश कर प्रत्यक्ष प्रदर्शन फागुन शुक्ला नवमी (वेदों द्वारा नवदुर्गा के जन्मोत्सव- नवम् सिद्धिदात्रीश्च) को श्रीधाम बरसाना की रंगीली गली में किया। यहां ब्रज के कृष्ण की कूटनीतिज्ञता स्वत: सिद्ध हो जाती है। भोग संस्कृति के पोषक जन यह जान ही न पाए कि इस रंग गुलाल के आवरण में ही अबला सबला बनकर हाथ में लट्ठ लिए अवतरित हो रही है। यह प्रयोग कितना सफल हुआ इसका एकमात्र पौराणिक इतिहास है कि गोकुल से नंदगांव आने के बाद कृष्ण को एक भी असुर, यक्ष एवं नाग का वध नहीं करना पड़ा क्योंकि इन गोपियों (नारियों) की रणभेरी की तरह गुन्जित हुंकार एवं चमचमाती लाठियां जो देखी थीं और ब्रजलीलाएं जो ब्रजलोक धर्म भवित प्रेमभावना की अगुरुसुगंधी (चैतन्य चरितामृत) लेकिन श्री चैतन्य एवं श्री बल्लभ से पांच दशक पूर्व आये ब्रजाचार्य श्रील्नारायण भट्ट ने ब्रजलोकधर्म के रूप में पुन:प्रतिष्ठित किया जिसका आज तक प्रभाव देखा जा सकता है।
अपने सर्वप्रमाण शिरोमणि ग्रन्थ साधनदीपिका में श्रील्नारायण भट्ट ब्रज को श्रीराधा कृष्ण की भावना से भावित हो जाति धर्म संप्रदाय मुक्त प्रदेश की उद्घोषणा कर चुके हैं। याद रहे श्रील्नारायण भट्ट के ग्रंथों के अलावा भक्तिकालीन आचार्यो के किसी भी ग्रंथ में नारी सशक्तीकरण एवं लठामार होली का वर्णन नहीं मिलता है। प्रकाण्ड विज्ञ परिवार में पैदा होने के कारण श्रील्नारायण भट्ट ने इसका बीज केवल जगदगुरु आदि शंकराचार्य के दादागुरु श्रीगौड़पादाचार्य के ग्रंथ श्रीचिदानंद केलिविलास में पाकर श्रीकृष्णकालीन लीला में वितृपत लठामार होली का आयोजन श्री नंदगांव एवं श्रीराधा बरसाना के संयुक्त तत्वावधान में प्रसिद्ध गली रंगीली गली, जोकि एक ऐतिहासिक विरासत है, में कराया।
अनुपम होली हौं यहां लठों की सरनाम अबला सबला सी लगत बरसाने की वाम लठ्ठ धरे कंधा फिरें जबहि भगावौ ग्वाल जिमि महिषासुर मर्दिनी चलती रण में चाल। और इसी नारी शक्ति से अभिभूत सुप्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब के उस्ताद मीर तकीमीर ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष बरसाने के कटरे में बिताते हुए इसी होली को देखकर अपने दीवाने मीर में लिखा है ह्यहर तरफ नजर आता है वो नाखुदा। ना कोई यहां छोहरी है ना छौहरा है। मीर बात मेरी मान देखो जग होरी है ब्रज होरा है।ह्ण भोग संस्कृति में रचे पचे मीर भी यहां होरी होरा में बदलने से नहीं चूके हैं। यह है नारी सशक्तीकरण का हर दिल में अवतरण। तमिल भाषा में इसी लठामार होली को देखकर 18वीं शताब्दी में तमिल भक्त श्रीरामालिंगम ने कहा है: अरुल पेरुन ज्योति तानि पेरुण करुणै। यह है प्रत्यक्ष प्रमाण उत्तर भारत व दक्षिण भारत ही एकजुटता का जो इसी लठामार होली का वरदानमय प्रतिफलन है और संरक्षण के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन में संपूर्ण नारी जगत ने यही कहा होगा - लेके पहला पहला प्यार.
बरसाने में बरसेंगी प्रेम में पगी लाठियां
होली व ब्रज एक-दूसरे के पर्याय हैं। रंगों के इस त्यौहार को ब्रजभूमि ने प्रेमरस प्रदान किया है। इस प्रेमरस की वर्षा बरसाने की रंगीली गली से आज विश्वमंच पर व्याप्त हो चुकी है।
बरसाने में बरसेंगी प्रेम में पगी लाठियां
होली व ब्रज एक-दूसरे के पर्याय हैं। रंगों के इस त्यौहार को ब्रजभूमि ने प्रेमरस प्रदान किया है। इस प्रेमरस की वर्षा बरसाने की रंगीली गली से आज विश्वमंच पर व्याप्त हो चुकी है।
दुनियां भर में विख्यात बरसाने की लठामार होली में आज भी सब कुछ वैसा ही है, जैसा सदियों पहले था। वही हुरियार और वही हुरियारिनें। प्रेम पगे प्रहार के लिए हाथों में लाठियां तो उनकी मार सहने के लिए ढाल। 14 मार्च को एक बार फिर रंगीली गली में लठामार होली के यह अद्भुत नजारे हर किसी को विस्मृत करेंगे। यहां हुरियारिनें बरसाने की तो हुरियार नंदगांव के होंगे। अगले दिन नंदगांव में हुरियार बरसाने के होंगे तो हुरियारिनें नंदगांव की। कहते हैं द्वापर में मनुहार, माधुर्य व मादकता की यह अद्वितीय होली नंदगांव से ग्वालवालों के साथ आए कृष्ण कन्हैया व बरसाने की राधारानी ने सखियों को साथ लेकर खेली थी। उसी रंगीली गली में आज भी दोनों गांवों के लोग होली की इस अनूठी परंपरा का निर्वहन करते चले आ रहे हैं। प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ला नवमी का जितना इंतजार दुनियां भर के लोगों को रहता है, उससे कहीं ज्यादा बेसब्री बरसाना व नंदगांव के हुरियार व हुरियारिनों को रहती है। बरसाना की लठामार होली में अन्य स्थानों की होली के अनुरूप रंग, अबीर व नृत्य संगीत के अलावा लाठियों से खेलने की जो विशिष्टता है, वह इस बात की ध्योतक है कि यहां लाठियों से भी प्रेमरस की वृष्टि होती है। लठामार होली खेलने के लिए नंदगांव के हुरियार नंदभवन पर एकत्र होते हैं। यहां नटवर नागर श्रीकृष्ण उनके भाई बलरामजी की प्रतिमा के समक्ष माता यशोदा से होली खेलने की आज्ञा लेते हैं। इसके बाद नंदीश्वर महाराज की उपासना करते हुए नंदबाबा की चौपाल से श्रीकृष्ण स्वरूप ध्वज को साथ लेकर रसरंग में गोते लगाते हुए हुरियार बरसाना के प्रिया कुंड पर एकत्र होते हैं। रणक्षेत्र में जाने वाले योद्घा की तरह हुरियारों के हाथ में लाठियों की मार से बचने के लिए मजबूत ढाल होती हैं। परंपरागत वेशभूषा में सजे-धजे हुरियारों की कमर में तीरक मान की जगह अबीर-गुलाल की पोटलियां बंधी होती हैं। प्रिया कुंड पर भांग- ठंडाई छानने के बाद होली की तैयारी होती है। तभी बरसाना का गोस्वामी समाज रंगीली गली से होकर चौपई (शोभायात्रा) निकालते हुए हुरियारों के स्वागत के लिए प्रिया कुंड मार्ग पर पहुंचता है। दोनों ओर के वरिष्ठ गोस्वामीजन गले मिलते हैं और शुरू हो जाती है रंगों की बौछार। देखते ही देखते टेसू के रंग की बरसात होने लगती है। परंपरागत शास्त्रीय गान ह्यढप बाजै रे लाल मतवारे कौह्ण का गायन होने लगता है।
हुरियार भंग की तरंग में गोते लगाते हुए रंगीली गली पहुंचते हैं। यही वह स्थल है जो सदियों से लठामार होली का युद्घ स्थल बन जाता है। इधर, हुरियारिनें सायंकाल बरसाने की रंगीली गली में खेली जाने वाली इस लठामार होली की तैयारी प्रात: से ही करने लगती हैं। बरसाना की हुरियारिनें इसी स्थल पर हुरियारों का स्वागत परंपरागत गालियों से करती हैं। हुरियार ह्यफाग खेलन बरसाने आए हैं, नटवर नंद किशोरह्ण का गायन करते हैं तो हुरियारिन ह्यहोली खेलन आयौ श्याम आज जाकूं रंग में बोरौ रीह्ण का गायन करती हैं। भीड़ के एक छोर से गोस्वामी समाज के लोग परंपरागत बंब आदि वाद्यों के साथ माहौल को शास्त्रीय रूप दे देते हैं। ढप, ढोल, मृदंग की ताल पर नाचते गाते दोनों दलों में हंसी-ठिठोली होती है। इसी बीच मौका पाकर नंदगांव के हुरियार अपनी पिचकारियों से बरसाना की हुरियारिनों को रंगना चाहते हैं। बस यहीं से शुरू हो जाता है अद्भत युद्ध ह्यलठामार होलीह्ण इस बीच हुरियारिन अपनी पूरी ताकत से हुरियारों पर लाठियों के वार करती हैं। लाठियों की तड़तड़ाहट रंगों से बने बादलों में दूर तक सुनाई देती है। करीब एक घण्टे तक चलने वाली इस लठामार होली के बीच ह्यगिरधर के रस रंग में भीग रह्यो चहुंधा बरसानौह्ण के स्वर गूंजने लगते हैं। रंगीली गली की रज को अपने मस्तक परलगाकर हुरियारे स्वयं को धन्य समझते हुए नंदगांव वापस लौट जाते हैं। इधर हुरियारिनें अपनी जीत की सूचना देने के लिए राधारानी के मंदिर की ओर दौड़ लगाती हैं। वापस जाते हुए हुरियारे बरसाना के लोगों को नंदगांव में होली खेलने आने का न्योता देना नहीं भूलते। अगले दिन फाल्गुन दशमी को नंदगांव में लठामार होली होती है।
कुंठाओं से निवृत्ति है होली
होली आनन्द के आहलाद का महोत्सव है। विश्व के कई देशों में इसे भिन्न-भिन्न रूपों में मनाया जाता है। होली के कई संदर्भ प्रस्तुत किए जाते हैं। संत जहां होली को प्रेम का पर्व मानते हैं, वहीं मनोवैज्ञानिक इसे कुण्ठाओं की निवृत्ति के त्यौहार की संज्ञा देते रहे हैं। मनुष्य अपनी दबी कुण्ठाओं को इस दिन नि:संकोच प्रकट करता है। फिर भी कोई बुरा नहीं मानता। काष्र्णि गुरुशरणानंद महाराज व प्रसिद्ध यूनानी विचारक ऐरिस्टोटल का केथरसिस का सिद्घांत भी इसी विचार का प्रतिपादन करता है। कृषक इसे लहलहाती फसल कटने का अनंद उत्सव मानते हैं। सामाजिक जन इसे जन समाज की ऊंच-नीच की दीवार को तोड़ने वाला पर्व मानते हैं। भगवदीयजन इसे बुराई पर भलाई का विजय पर्व मानते हैं। भक्त प्रहलाद भलाई के प्रतीक हैं तथा हरिण्यकश्यप की बहिन होलिका विलासिता, अनाचारपूर्वक संचय का प्रतीक है। प्राकृतिक दु:साधन युक्त होने के बावजूद होलिका अपनी रक्षा नहीं कर पाईं और अग्नि उसे भस्मसात कर गई। इसीलिए कहा गया है कि बुराई, कटुता, वैमनस्य व दुर्भावों की होली जलाओ तथा प्रेम, सदभाव व सदाचार का रंग सब पर बरसाओ। ब्रज की होली तो जगत से अनूठी होती है। यहां प्रिया-प्रियतम अपने सहचर सहचरी वृन्द के साथ परस्पर होली खेलते हैं। श्री राधारानी उन पर रंग बरसाती हैं। श्रीकृष्ण भी अपने अनुराग की बरसात होली के रूप में करते हैं। इतना गुलाल बरसता है कि आकाश भी रंग बिरंगा हो जाता है। आकाश के रंग जाने का तात्पर्य है कि सम्पूर्ण दृष्य राधा कृष्ण के प्रेम से आह्लादित हो जाता है। होली के दिन आपस की बड़ी से बड़ी दुश्मनी भुलाकर लोग परस्पर रंग डाल कर गले मिलते हैं। यह रंग प्रेम का ही तो रंग है। इस दिन जब भी व्यक्ति घर से निकलता है, उसकी आँखों पर प्रेमरंग चढ़ा रहता है। वह सामने आने वाले व्यक्ति के छोटे बड़े, शत्रु या मित्र, किस जाति का है इसका भी ध्यान नहीं रखता। भेदभाव रहित यह निश्छल प्रेम ब्रज की होली की मर्यादा को जीवंत करता है।
- पूनम यादव
नंदगांव में कृष्ण गोपी बनकर खेलते हैं लठामार होली
बरसाना की लठामार होली में भगवान श्रीकृष्ण राधा और गोपियों को बिना फगुआ दिए ही वापिस नंदगांव चले गए तो राधाजी व गोपियां भाई श्रीदामा को साथ लेकर फगुआ मांगने जाती हैं। नंद की पौरी पर पहुंचकर गोपियां अवाज लगाती हैं कि ह्यदरशन दे नंद दुलारे, फगुआ मांगन आई ब्रज सुंदरी।ह्ण श्रीकृष्ण देखते हैं कि बरसाने की गोपियां पूरी तैयारी से आई हैं वे अपने महल से बाहर निकलकर राधाजी से पूछते हैं कि क्या बात है। तब राधाजी उनसे कहती हैं कि ह्यकाल खेल आए बरसाने आज होय तेरे द्वारेह्ण अर्थात् आज फागुन शुक्ला दसवीं के दिन नंदगांव में होरी खेलें। श्रीकृष्ण राधाजी से कहते हैं कि आज हम गोपी बनेंगे तुम गोप बनो। इसी लीला को चरितार्थ करने के लिए बरसाना की गोपियां गोप बनकर नंदगांव में वहां की गोपियों से लठामार होली खेलती हैं। आज भी प्रतिवर्ष बरसाना के गोप फागुन शुक्ला दसवीं को नंदगांव हाथों में ढाल, पिचकारी, फेंट में गुलाल और रंग लेकर पहुंचते हैं। वहां वे नंदगांव की हुरियारिन गोपियों के साथ लठामार होली खेलते हैं।
नंदगांव में कृष्ण गोपी बनकर खेलते हैं लठामार होली
बरसाना की लठामार होली में भगवान श्रीकृष्ण राधा और गोपियों को बिना फगुआ दिए ही वापिस नंदगांव चले गए तो राधाजी व गोपियां भाई श्रीदामा को साथ लेकर फगुआ मांगने जाती हैं। नंद की पौरी पर पहुंचकर गोपियां अवाज लगाती हैं कि ह्यदरशन दे नंद दुलारे, फगुआ मांगन आई ब्रज सुंदरी।ह्ण श्रीकृष्ण देखते हैं कि बरसाने की गोपियां पूरी तैयारी से आई हैं वे अपने महल से बाहर निकलकर राधाजी से पूछते हैं कि क्या बात है। तब राधाजी उनसे कहती हैं कि ह्यकाल खेल आए बरसाने आज होय तेरे द्वारेह्ण अर्थात् आज फागुन शुक्ला दसवीं के दिन नंदगांव में होरी खेलें। श्रीकृष्ण राधाजी से कहते हैं कि आज हम गोपी बनेंगे तुम गोप बनो। इसी लीला को चरितार्थ करने के लिए बरसाना की गोपियां गोप बनकर नंदगांव में वहां की गोपियों से लठामार होली खेलती हैं। आज भी प्रतिवर्ष बरसाना के गोप फागुन शुक्ला दसवीं को नंदगांव हाथों में ढाल, पिचकारी, फेंट में गुलाल और रंग लेकर पहुंचते हैं। वहां वे नंदगांव की हुरियारिन गोपियों के साथ लठामार होली खेलते हैं।
जारी है आग व प्रहलाद की परंपरा अबीर-गुलाल व रंग की फुहार के लिए जहां ब्रज की होली विख्यात है, वहीं आग और प्रहलाद की परंपरा यहां आज भी कायम है। होलिका की दहकती आग से गुजरने का चमत्कारिक नजारा ग्राम फालैन में आज भी इस पुराने घटनाक्रम की याद ताजा कर रहा है। जटवारी में कुछ वर्षो से ऐसे ही नजारे दिखाई दे रहे हैं। यही नहीं होलिका की प्रतिमा का दहन करने की शुरुआत भी मथुरा से ही हुई है।
हिरण्यकश्यप की बहिन होलिका को यह वरदान था कि आग की लपटें उसे जला नहीं सकतीं।
भक्त प्रहलाद को मारने के लिए हिरण्यकश्यप ने होलिका का सहारा लिया। परंतु, प्रहलाद आग की लपटों से सकुशल बच निकले। यह पौराणिक घटनाक्रम आज भी कोसीकलां के ग्राम फालैन में सकार हो रहा है। यहां आग की दहकती लपटों से पंडा परिवार का कोई न कोई सदस्य होलिका की दहकती आग से नंगे पांव सकुशल निकलता है। इसके लिए यह पंडा एक माह पूर्व से साधना शुरू कर देता है। होलिका दहन जिस स्थल पर किया जाता है, वहीं समीप में प्रह्लाद कुंड व प्रहलादजी का मंदिर है। इस बार बलराम पंडा इस चमत्कारिक होलिका दहन की तैयारी में जुटा हुआ है। गांव में दीवाली जैसा माहौल है। घर-घर सफाई अभियान छिड़ा हुआ है। होलिका दहन के इस अद्भुत नजारे को देखने के लिए 19 मार्च को फालैन में दूर-दराज के हजारों लोग उमड़ेंगे। ग्रामवासियों द्वारा इनका स्वागत किया जाएगा। कुछ इसी तर्ज पर ग्राम जटवारी में भी दहकती आग से प्रहलाद के सकुशल बच निकलने की घटना को साकार रूप दिया जाएगा। इसके लिए गांव का ही संतोष नामक युवक तैयारी में जुटा हुआ है। आग व प्रहलाद की परंपरा का यह खेल ब्रज के लोक जीवन में होने वाले होलिका दहन में भी देखने को मिलता है। करीब पांच दशक पूर्व मथुरा में होली वाली गली में होलिका की पहली प्रतिमा स्थापित की गई। उसके बाद होली गेट पर प्रतिमा रखने का सिलसिला शुरू हुआ। होली गेट ने होलिका की प्रतिमा को इतनी प्रसिद्धि दी कि आज यह प्रतिमा समूचे जनपद ही नहीं, आसपास के जनपदों तक पहुंच गई है। होलिकोत्सव संघ के अध्यक्ष मदन मोहन श्रीवास्तव बताते हैं कि होलिका दहन के लिए होलिका के साथ-साथ भक्त प्रह्लाद की भी आकर्षक प्रतिमा का निर्माण कराया जाता है। भक्त प्रहलाद को होलिका की गोद में विराजमान किया जाता है। परंतु, होलिका में आग लगाते समय भक्त प्रह्लाद की प्रतिमा को होलिका की गोद से हटा लिया जाता है। इसके चलते होलिका आग में भस्म हो जाती है।
-कन्हैया उपाध्याय
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