किसान से अच्छा कोई नहीं किस्मों का चयनकर्ता
पूसा संस्थान की एचडी 2967 गेहूं किस्म को लेकर धडेबंदी
मथुरा। ‘कोस कोस पै बदलै पानी, चार कोस पै बानी’। यह दोहा ब्रज में कई दशक पूर्व से सुना जाता है। इसका निहितार्थ यही है कि हर एक कोस पर पानी का स्वाद और गुण ब्रजांचल में बदल जाते हैं। कामोवेश ग्लोबल वार्मिंग के चलते समूचे देश में अब यही आलम है। पर्यावरणीय बदलावों से लड़ने में नई किस्मों का योगदान अहम हो सकता है लेकिन वैरायटियों को रिलीज करने की प्रक्रिया में कई खामियां उजागर होती रही हैं। गेहूं की 2967 किस्म के रिलीज न होने में भी इन खामियों का परत दर परत खुलासा हो रहा है।
उदाहरण के तौर पर धान की 1121 प्रजाति केवल दिल्ली प्रदेश के लिए रिलीज हुई और आज इसे पूरे देश में बोई जाती है। विदेशों में सर्वाधिक निर्यात भी इसी किस्म का हो रहा है। इसके बाद ही कुछ राज्यों ने इसे अपने यहां रिलीज किया। कई राज्यों ने अभी तक रिलीज नहीं किया लेकिन किसान इसकी खेती बहुतायत में और हर राज्य में कर रहे हैं। कुछ इसी तरह की पेचीदगियों से पूसा संस्थान के सेवानिवृत्त वैज्ञानिक डा. बीएस मलिक की गेहूं किस्म एचडी 2967 जूझ रही है। हाईपॉवर कमेटी की संस्तुति के बाद भी इसे रिलीज नहीं किया जा सका है।
जानकार मानते हैं कि अ•ाी तक गेहूं की 300 करीब किस्में रिलीज हो चुकी हैं लेकिन आम प्रचलन में 50 किस्म ही हैं। सच यही है कि किसान उन्नत किस्मों को ही अपनाते हैं।
एक ओर देश में खाद्य सुरक्षा के लिए करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर सरकार की नीतियां ही अच्छी किस्मों के जल्दी किसानों तक पहुंचने में बाधक बन रही हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों की धडेÞबंदी की शिकार कई प्रजातियां हो रही हैं। इन्हीं में से एक २९६७ भी है। सालों से लाइन में लगी इस किस्म को इस साल रिलीज न होने से इसके ब्रीडर सीड़ का उत्पादन नहीं हो सकेगा और बीज उत्पादकों को भी इसके रिलीज होने के बाद अगले साल ब्रीडर बीज मिल सकेगा। इससे तैयार बीज आम किसान तक 2013 तक ही आसान होगा। इस किस्म की परफरमेंश अच्छी नहीं थी तो हॉईपावर कमेटी को ही इसे आगे नहीं बढ़ाना चाहिए था।
आसन्न चुनौतियों से निपटने के लिए वैरायटियों को रिलीज करने की प्रक्रिया में सरलता लानी होगी। पिछले दिनों भरतपुर आए आईसीएआर के डीडीजी सीड सपन कुमार दत्ता भी इस किस्म के मामलें में जबाव देने से बचते रहे। अभी भी ट्रायल केवल जिलों या राज्य के कुछ सटेशनों पर लगते हैं। मसलन मथुरा में राया कृषि शोध प्रक्षेत्र पर इस तरह की किस्मों के रिलीज होने से पूर्व ट्रायल लगते हैं लेकिन यहां भी चार तरह की क्लाइमेट कंडीशन हैं। राया पर अच्छी परफरमेंश वाली किस्म समूचे जिले में अच्छे परिणाम देखी यह होही नहीं सकता।
इस वैरायटी के प्रजनक डा. बीएस मलिक कहते हैं कि किसी भी किस्म के चयन में किसान से अच्छा कोई नहीं। किसान उन्नत उपज वाली किस्म को ही अपनाते हैं। उन्होंने बताया कि अभी तक जो किस्में आई हैं उनमें से ज्यादातर 4-5 साल तक ही दम दिखा पार्इं। 10 से ऊपर किसानों में प्रचलित चंद किस्में हैं। यातो नई उन्नत उपज वाली किस्मों ने उन्हें पीछे कर दिया या फिर किसानों ने पुरानी किस्मों को छोड़ दिया। उनकी किस्म किसानों के यहाँ अच्छा पिरणाम देगी तो उसे कोई नहीं रोक पाएगा। कमजोर उपज वाली किस्म के रिलीज होने से उन्हें या किसान को काई फायदा नहीं होगा। कुछ वैज्ञानिकों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि स्वर्णा किस्म आंध्र प्रदेश से रिलीज हुई और इसको समूचे देश में किसान अपना चुके हैं। समा मसूरी भी केवल आंध्र प्रदेश के लिए संस्तुत हुई और पूरे देश में प्रचलित हो गई। कौन किस्म कहाँ के लिए रिलीज हुई है और कहाँ-कहाँ बोई जा रही है यह किसान की पसंद और ला•ा पर निरभर है। सरकारी तंत्र के किस्मों को क्षेत्र विशेष के लिए रिलीज करने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।
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