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सोमवार, 14 मार्च 2011

गांव और खेती को बचाना है


भारत की संस्कृति, समृद्धि और सभ्यता का आधार गंगा, गौ, गायत्री, गीता और गुरु ही रही है। भारत की संस्कृति प्रकृति मूलक संस्कृति है। इस प्राकृतिक संरचना में गाय को हमने विशेष दर्जा दिया है। उसे कामधेनु तथा सर्व देव मयी गौ माता माना है। वह हमें दूध, दही, घी, गोबर-गोमूत्र के रूप में पंचगव्य प्रदान करती है। सृष्टि की संरचना पंचभूत से हुई है। यह पिंड, यह ब्रहमाण्ड,पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश रूप पंचभूतों के पांच तत्वों से बना है। इन पंचतत्वों का पोषण और इनका शोधन गोवंश से प्राप्त पंच गव्यों से होता है। इसीलिए गाय को पंचभूत की मां कहां गया है। ह्यमातर: सर्व सुखप्रदा:। वह गोबर से धरती को उर्वरा बनाती है। जल और वायु का शोधन करती है। हमें अग्नि व ऊर्जा प्रदान करती है। आकाश को निर्मल और पर्यावरण को शुद्ध रखती है। गोबर गाय का वर है। यानि वरदान है। वह सोना रूपी खाद है। गोबर में धन की देवी लक्ष्मी का निवास बताया गया है। ह्यगोमये बसते लक्ष्मी, धरती में जब हम यह अमृत खाद डालते हैं, तो धरती सोना उगलती है। हमें अमृत तुल्य पोषण तत्व प्रदान करती है। हमारे गांव जो कृषि संपदा, वनस्पति, गौ-संपदा एवम खनिज आदि संपदाओं व संसाधनों के स्नेत तथा कला, कौशल का हुनर ,कारीगरी, कुटीर व ग्रामोद्योगों के केन्द्र व स्वरोजगार सम्पन्न रहे है। आज क्यों उजड़ गये हैं। हमारे कुशल कारीगरों को गांवों से पलायन कर शहरों में सामान्य मजदूर बन कर गंदे नालों के आसपास नारकीय जीवन बसर करने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ रहा है। आज विश्व की प्राथमिक आवश्यकता बनता जा रहा है। इसलिए विश्व को दिशा देने वाले भारत की प्राचीन प्रकृति मूलक गो-आधारित स्वरोजगार सम्पन्न स्वावलम्बी ग्राम की चरणबद्ध कार्य योजना पर विश्व को चलना होगा। हमारे पुराण व शास्त्र अत्यन्त पुरातन होते हुए भी पूर्ण संतुलन के विज्ञान को दर्शाते हैं। वर्तमान युग की उन्नति का प्रभाव वर्तमान में प्राकृतिक असंतुलन पर कोपेनहेगन में माथा पच्ची से भविष्य की चिताओं को समझ सकते हैं। कोयले के साथ कच्चा तेल, परमाणु ऊर्जा, प्राकृतिक गैस पन बिजली, रासायनिक खेती, जैविक खेती, खान-पान, रहन सहन, जैसे तमाम कारणों की वजह से धरती का तापमान पिछले सौ साल तापमान 0.74 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। एक अनुमान के मुताबिक 0.50 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से ही पीने योग्य पानी में 1/4 कमी आ जायेगी। 1/4 गेंहू-और अन्य फसलों का उत्पादन घट जायेगा। जिस हिसाब से जनसंख्या बढ़ रही है, उसी हिसाब से मांग भी बढ़ रही है। साथ ही साथ प्राकृतिक आपदाओं और प्रदूषण से संसार विनाश की ओर बढ़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हल्ला मचाया जाता है कि भारत के पशुओं से मिथेन का उत्सर्जन ज्यादा हो रहा है। उसमें भी गौ माता को आधार बनाते हैं। दूसरी तरफ यही लोग अपने पशुओं को सोयाबीन, मक्का, मटर, खिलाकर मिथेन का उत्सर्जन अधिक कर मांस प्राप्त करने के लिए तापमान बढ़ा रहे हैं। इन लोगों को पता ही नहीं कि हमारे देश की प्राचीन पद्धति शाकाहारी, प्राकृतिक खेती, जल, जंगल, जमीन, जन जानवर के परस्पर सम्पोषण जैसे प्रकृतिपरक विकास की रही है। हमारे देश की गो माता घास खाती है। जिसमें ओमेगा चर्बीदार अम्ल अधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं, जिससे मिथेन की मात्रा कम होती है। साथ ही दूध की मात्रा बढ़ जाती है। इन वैज्ञानिकों को पाराशर मुनि द्वारा दी गयी विधि की भी जांच करनी चाहिए जिसमें उन्होंने माघ महीने में 25डिग्री सेल्सियस से कम तापमान पर गोबर खाद में विघटन करने वाले जीवाणु ज्यादा सीिय होते है। इसी समय गड्डे में गोबर का उलटफेर ठीक होने की बात कही है।
ताकि मिथेन का उत्सर्जन हो ही ना। गोमाता को स्वच्छ जल कुदरती चारा और कम से कम 6 घंटे टहलने की बात कही ताकि गाय की आंत में अनुकूल प्रति जैविक निर्माण करने में लेक्टो बसीलस, बायपिफड़ो बैक्टेरियम, स्ट्रेप्टोकाकस, एप्ट्रोकाकंस, ल्यूकान स्टाक, पेड़ीओकाकस, पीस्टकल्चरस अस्परजिनेस इन जीवाणुओं की भूमिका होती है जिसके कारण पर्यावरण संतुलन निर्माण होता है। इस आंत में पर्यावरण के घटक होते हैं स्थिर जीवाणु और अस्थिर जीवाणु, लार स्वादुपिण्ड रस, लीवर और आंत के अंत:स्नव, विर्सजक द्रव्य, विद्रव्य पदार्थ, संजीवक बाईलक्षार, यूरिया, संरक्षक प्रोटीन और अन्य असंख्य घटक द्रव्य होते हैं। ये द्रव्य पर्यावरण संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रूस के वैज्ञानिकों ने अनुसंधान किया कि गाय के घी से हवन करने से, धुंए के प्रभाव क्षेत्र कीटाणु और बैक्टीरिया से मुक्त हो जाता है। घी और चावल रूपी मिश्रित हवन से प्रदूषण जनित रोगों में तनावों से मुक्त वातावरण शुद्धि व पुष्टि देने लगता है। यज्ञ प्रभाव क्षेत्र के मनुष्य, पशु, पक्षी तथा वनस्पति की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। हवन से निकलने वाली महत्वपूर्ण गैसों में इथीलीन, आक्साइड, प्रोपलीन आक्साइड, पफार्मल्डीहाइड गैसों का निर्माण होता है।
इथीलीन आक्साइ़ड गैस जीवाणु रोधक होने पर आजकल आपरेशन थियेटर से लेकर जीवन रक्षक औषधियों के निर्माण में प्रयोग में लायी जा रही है। वही प्रोपलीन आक्साइड गैस का प्रयोग कृत्रिम वर्षा कराने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है। केवल गो माता के गोबर को सूखाकर जलाने से मेन्थोल, पिफनोल, अमोनिया, एंव पफार्मेलिन का उत्सर्जन होता है। प्रकृति से प्राप्त नाइट्रोजन, फास्पफोरस, पोटैशियम जो रासायनिक खनिजों से अत्यधिक गुणवान होते है। उस पर किसी का ध्यान नहीं है। हमारे देश के 40 करोड़ पशुधन से ही, 83 लाख 92 हजार 500 एकड़ भूमि को गोबर और मूत्र से उर्वरा बना सकते है। भारत मे हर दिन 92 करोड़ 59 लाख लीटर मूत्र और 185 करोड़ 18 लाख किलो गोबर के लाभ से हम वंचित हो रहे हैं। 60 करोड़ टन ताजा खाद की कीमत आंकेंगे तो 1खरब 90 अरब करोड़ रुपए होती हैं। जिसमें 92 करोड़ 59 लाख लीटर मूत्र से प्राप्त खनिजों की तो हम बात ही नहीं कर रहे हैं। जिसमें नाइट्रोजन, पोटेशियम, अमोनिया, फास्फोरस, आयरन, सोडियम, सल्फर, कॉपर, तांबा, कैल्शियम जैसे कुल 56 तत्व पाये जाते हैं।
. हरपाल सिंह

करें भिंडी बोने की तैयारी
भिंडी एक लोकप्रिय सब्जी है। इसमें कैल्सियम, फास्फोरस, विटामिन ए, बी तथा सी पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं।
भूमि व खेती की तैयारी भिंडी के लिये दीर्घ अवधि का गर्म व नम वातावरण श्रेष्ठ माना जाता है. बीज उगाने के लिये 26-30 डिग्री से. ग्रे तापमान उपयुक्त होता है तथा 16 डि से. ग्रे से पर बीज अंकुरित नहीं होते। यह फसल ग्रीष्म तथा खरीफ, दोनों ही ऋतुओं में उगाई जाती है। भिंड़ी को उत्तम जल निकास वाली सभी तरह की भूमि में उगाया जा सकता है। भूमि का पी एच. मान 6 से 6.8 होना उपयुक्त रहता है। उत्तम किस्में पूसा ए -4 : यह भिंडी की एक उन्नत किस्म है। यह पीतरोग, येलोवेन मोजोइक रोधी है। फल मध्यम आकार के गहरे, कम लेस वाले तथा आकर्षक होते हैं। बोने के लगभग 15 दिन बाद से फल आना शुरू हो जाते हैं। इसकी औसत पैदावार ग्रीष्म में 10 टन व खरीफ में 15 टन प्रति है।
परभनी क्रांति : यह किस्म पीत-रोगरोधी है। फल बुआई के लगभग 50 दिन बाद आना शुरू हो जाते है। फल गहरे हरे एवं 15-18 से. मी. लम्बे होते हैं। इसकी पैदावार 9-12 टन प्रति है। यह किस्म भी पीतरोगीरोधी है। फल हरे एवं मध्यम आकार के होते हैं। बुआई के लगभग 55 दिन बाद फल आने शुरू हो जाते हैं। इसकी पैदावार 8-20 टन प्रति है। इसके अलावा भिंडी की अन्य उन्नत किस्में हैं - पंजाब पद्मिनी, हिसार उन्नत व वर्षा उपहार। बीज की मात्रा व बुबाई का तरीका सिंचित अवस्था में उत्तर प्रदेश में 5 से 6 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर बीज की संस्तुति दी गयी है. लाइन से लाइन की दूरी 30 से. मी., पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. व 2 से 3 से. मी. गहरी बुवाई करनी चाहिये। ग्रीष्म ऋतु में 30 715 सें.मी. वर्षा में 45 7 60 7 20 7 25 से. मी. की दूरी पर बुआई करनी चाहिए। बुबाई का समय भिंडी के बीज सीधे खेत में ही बोये जाते हैं। बीज बोने से पहले खेत को तैयार करने के लिये 2-3 बार जुताई करें। पूरे खेत को उचित आकार की पट्टियों में बांट लें जिससे कि सिंचाई करने में सुविधा हो। भिंडी बोने का समय जनवरी से अप्रैल तक होता है। खाद एवं उर्वरक- प्रति हैक्टेयर क्षेत्र में लगभग 15-20 टन गोबर की खाद 300 कि. ग्रा. अमोनियम सल्फेट या 400 कि. ग्रा. सुपर फास्फेट एवं 100 कि. ग्रा. उत्तमवीर यूरिया 15 दिन के अन्तर पर।
निराई, गुड़ाई व सिंचाई- सिंचाई मार्च में 10- 12 दिन, अप्रैल में 7- 8 दिन और मई-जून मे 4-5 दिन के अन्तर पर करें। बरसात में यदि बराबर वर्षा होती है तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। पौध संरक्षण- तना ,फल छेदक एवं फुदका इसके नियन्त्रण के लिये 35 ई. सी. एन्डोवीर ,एण्डोसल्फान के 0.07 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिये। फलों को छिड़काव से पहले तोड़ लेना चाहिये तथा इसके अलावा कीड़ा लगे फलों को तोड़कर जमीन में गाड़ देना चाहिये। पीत रोग, येलो बेन मौजेक यह भिंडी का प्रमुख रोग है। इस रोग में पत्तियों की शिराएं पीली पड़ने लगती हैं अन्तत: पूरा पौधा एवं फल पीले हो जाते हैं। इस रोग से बचाने के लिये रोगरोधी किस्मों का ही प्रयोग करना चाहिये। कटाई व उपज भिंडीं की तुड़ाई हर तीसरे या चौथे दिन आवश्यक हो जाती है। तोड़ने में थोड़ा भी अधिक समय हो जाने पर फल कड़ा हो जाता है। फल को फूल खिलने के 5-7 दिन के भीतर अवश्य तोड लेना चाहिए । उचित देखरेख, उचित किस्म व खाद- उर्वरकों के प्रयोग से प्रति हैक्टेयर 130- 150 कुन्तल हरी फलियां प्राप्त हो जाती हैं।

 मशरूम की खेती 
खेतों तथा घरों के आस-पास छतरीनुमा गुदगुदासा एक सफेद तना निकल आता है, इन्हें हम बोलचाल की भाषा में ह्यकुकरमुत्ताह्ण कहते हैं। इनको खुंभ, खुंभी, भमोड़ी एवं गुच्छी आदि कई नामों से जाना जाता है। अंग्रेजी में इन्हें मशरूम कहते हैं। खुंभी वास्तव में एक फंफूद है, जो काफी स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है। खुंभी में काबरेहाइड्रेट्स की कम मात्रा उन लोगों को आकर्षित करती है, जो अपना वजन कम करना चाहते हैं। इनकी करीब 1.20 लाख किस्में पाई जाती हैं, परंतु इनमें से मात्र 2 हजार किस्में ही खाने योग्य हैं। बहुसंख्यक भारतीय जो मूलत: भोजन के मामले में शाकाहारी हैं उनमें किसी भी ऐसे भोज्य पदार्थ के प्रति एक सहज आकर्षण होता है जो स्वाद में सामिष पदार्थो से मिलता जुलता हो। मशरूम की सब्जी का स्वाद माँस से बहुत मिलता है। इसकी हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में बड़ी मांग है। इसके काफी महंगे होने के बावजूद भी लोग इसकी सब्जी खाना पसन्द करते हैं। अत: इसकी खेती की अत्याधिक संभावनायें हैं।
मशरूम एक साधारण पौध संरचना है जो मूलत: दो भागों में बंटा रहता है । पहला भाग छतरी तथा दूसरा भाग डण्डी के रूप में रहता है। दोनों भाग ही खाने योग्य होते हैं। छतरी छोटी-छोटी कोशिकाओं का समूह होती है जबकि डंडी की रचना डोरीदार होती है। इन्हें सड़ाये हुए जैविक पदार्थों (खाद, भूसा, पुआल इत्यादि) पर उगाते हैं। अन्य पौधों से अलग इन्हें सूर्य के प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं होती। मशरूम अपने उच्च स्तरीय खाद्य मूल्यों के कारण ही सम्पूर्ण विश्व में अपना एक विशेष महत्व रखते हैं। मशरूम में काफी मात्रा में प्रोटीन,फोलिक एसिड, विटामिन तथा मिनरल होते हैं, फोलिक एसिड का रक्त्ताल्पता को दूर करने में चिकित्सीय महत्व है। यह एक जादुई स्थिति है जो काबरेहाइड्रेट्स की कम मात्रा के कारण भार घटाने वाले आहार के तौर पर उपयोग में लाया जाता है। स्वाद और पौष्टिकता के अतिरिक्त मशरूम उत्पादन के लिये अन्य कृषि उत्पादों से भिन्न इसको उगाने के लिए कृषि भूमि की आवश्यकता नहीं होती। मशरूम की खेती लागत के मुकाबले बाजार में काफी अच्छी कीमत देती है । इससे लघु सीमान्त कृषकों तथा भूमिहीन मजदूरों को वर्ष भर आय प्राप्त हो सकती है। चूंकि आयस्टर मशरूम को सुखाकर भी बेचा जा सकता है। अत: विपणन की समस्या नहीं रहती । इसे सामान्य घरेलू ग्रामीण महिलाओं द्वारा कुटीर उद्योग के रूप में भी अपनाया जा सकता है । मशरूम ताजी तथा कुछ किस्में सुखाकर खाने के काम आती हैं, इसलिये इसे लाभकारी कुटीर उद्योग के रूप में भी अपनाया जा सकता है। स्पॉन एक तरह का खमीर है जो विभिन्न तकनीकों से अनाजों पर तैयार किया जाता है इसी से मशरूम उगते हैं। मशरूम की खेती में स्पॉन का वही महत्व है जो खेती में बीज का। अच्छी मशरूम फसल हेतु अच्छा स्पॉन आवश्यक है। इसे कई निजी कम्पनियाँ तैयार करती हैं तथा बाजार में यह बोतलों में मिलता है। सोलन (हिमाचल प्रदेश) में कार्यरत प्रयोगशालाओं में काफी अच्छे प्रकार का स्पॉन तैयार किया जाता है। पौधों और जानवरों की तरह मशरूम पर बीमारियों और कीड़े-मकोड़ों का हमला होता है, इन्हें उगाने के दौरान, प्रत्येक अवस्था में पूरी सफाई का प्रबंध आवश्यक है। हर बार मशरूम को चुनने के बाद अनचाही किस्म की फफूंदी की वृद्वि को रोकने हेतु ठूंठों को निकाल देने का विशेष महत्व है। नाशक जीवों(पेस्ट) और बीमारियों के हमले के बारे में सावधानी बरतने के लिये मशरूम -घर में मशरूम को उगाने के दौरान सप्ताह में एक बार साईथियान 0.2 प्रतिशत छिड़क देना चाहिए जो बहुत जरूरी है क्योंकि अगर एक बार मशरूम इन बीमारियों और नाशक जीवों से ग्रस्त हो गया तो आमतौर पर इसका उपचार करना कठिन होता है और कभी-कभी तो यह असंभव हो जाता है। मशरूम बड़ी नाजुक चीज है, इसलिए इसकी देखभाल बड़ी सावधानी से करनी चाहिए।

नई नहीं है पशुपालन की परंपरा
पशु पालन की प्रथा आज की नहीं है, यह तो पूरी दुनिया में प्राचीन समय से चली आ रही है। भारत के प्राचीन ग्रंथों से पता लगता है कि पशुपालन वैदिक आर्यों के जीवन और जीविका से पूर्णतया हिल-मिल गया था। पुराणों में भी पशुओं के प्रति भारतवासियों के अगाध स्नेह का पता लगता है। अनेक पशु देवी-देवताओं के वाहन माने गए हैं। इससे भी पशुओं के महत्व का पता लगता है। प्राचीन काव्यग्रंथों में भी पशुव्यवसाय का वर्णन मिलता है। बड़े-बड़े राजा-महाराजा तक पशुओं को चराते और उनका व्यवसाय किया करते थे। ऐसा कहा जाता है कि पांडव बंधुओं में नकुल ने अश्वचिकित्सा और सहदेव ने गोशास्त्र नामक पुस्तकें लिखी थीं। ऐतिहासिक युग में आने पर अशोक द्वारा स्थापित पशुचिकित्सालय का स्पष्ट पता लगता है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में अश्वों एवं हाथियों के रोगों की चिकित्सा के लिए सेना में पशुचिकित्सकों की नियुक्ति का उल्लेख किया है। अश्व, हाथी एवं गौर जाति के रोगों पर विशिष्ट पुस्तकें लिखी गई थीं, जैसे जयदत्त की अश्वविद्या तथा पालकण्य की हस्त्यायुर्वेद।
गरीब की गाय बकरी बकरी पालन प्राय: सभी जलवायु में कम लागत, साधारण आवास, सामान्य रख-रखाव तथा पालन-पोषण के साथ संभव है। इसके उत्पाद की बिक्री हेतु बाजार सर्वत्र उपलब्ध है। इन्हीं कारणों से पशुधन में बकरी का एक विशेष स्थान है। बकरी की खास-बात यह है कि इसकी कोई भी चीच वेस्ट नहीं होती है। दूध से लेकर इसके मल-मूत्र को भी प्रयोग में लाया जाता है। इसके गुणों की वजह से ही बकरी की फार्मेसी के क्षेत्र मे अहम भूमिका रही है। बकरी की यूरिन से कई तरह के रोगों के लिए दवाईयां बाजार में उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि अगर किसी व्यक्ति को टीबी है, तो वह कुछ दिन बकरियों के बीच रहे। उसकी यह बीमारी ठीक हो सकती है। उपरोक्त गुणों के आधार पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी बकरी को गरीब की गाय कहा करते थे। आज के परिवेश में भी यह कथन महत्वपूर्ण है। आज जब एक ओर पशुओं के चारे-दाने एवं दवाई महंगी होने से पशुपालन आर्थिक दृष्टि से कम लाभकारी हो रहा है वहीं बकरी पालन कम लागत एवं सामान्य देख-रेख में गरीब किसानों एवं खेतिहर मजदूरों के जीविकोपार्जन का एक साधन बन रहा है।
बकरी पालन की उपयोगिता: बकरी पालन मुख्य रूप से मांस, दूध एवं रोंआ (पसमीना एवं मोहेर) के लिए किया जा सकता है। झरखंड राज्य के लिए बकरी पालन मुख्य रूप से मांस उत्पादन हेतु एक अच्छा व्यवसाय का रूप ले सकती है।
इस क्षेत्र में पायी जाने वाली बकरियाँ अल्प आयु में वयस्क होकर दो वर्ष में कम से कम 3 बार बच्चों को जन्म देती हैं और एक वियान में 2-3 बच्चों को जन्म देती हैं। बकरियों से मांस, दूध, खाल एवं रोंआ के अतिरिक्त इसके मल-मूत्र से जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है।
- कुनाल गोस्वामी


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