संतों की नजर में ब्रज की होली, कार्ष्णि गुुरु शरणानंद महाराज
मथुरा। होली आनन्द का आल्हाद का महोत्सव है। विश्व के कई देशों में इसे भिन्न भिन्न रूपों में मनाया जाता है। होली पर्व मनाने के कई संदर्भ प्रस्तुत किए जाते हैं। मनोवैज्ञानिक इसे कुण्ठाओं की निवृत्ति का पर्व मानते हैं। मनुष्य अपनी दबी हुई कुण्ठाओं को इस दिन निःसंकोच प्रकट करता है, फिरभी कोई बुरा नहीं मानता। प्रसिद्ध यूनारी विचारक ऐरिस्टोटल का केथरसिस सिद्धांत भी इसी विचार का प्रतिपादन करता है। कृषक इसे लहलहाती फसल कटने का अनंद उत्सव मानते हैं। सामाजिक जन इसे जन समाज की उूंच नीच की दीवार को तोड़ने वाला होली पर्व मानते हैं। भगवदीय जन इसे बुराई पर भलाई का विजय पर्व मानते हैं। भक्त प्रहलाद भलाई के प्रतीक हैं तथा होलिका जो हरिण्यकशिपु की बहन हैं, विलासिता, अनाचारपूर्वक संचय का प्रतीक है। प्रातीतिक दुःसाधन युक्त होने के बावजूद होलिका अपनी रक्षा नहीं कर पाईं और अग्नि उसे भस्मसात कर गई।
हिंसः स्वपापेन विहिंसितः खलः साधुः समत्वेन भयाद् विमुच्यते। बुराइयों की, कटुताओं की, वैमनस्य की, दुर्भावों की होली जलाओ और प्रेम का, सद्भाव का, सदाचार का रंग सब पर बरसाओ।
ब्रज की होली तो जगत से अनूठी होती है। यहॉं प्रिया प्रियतम अपने सहचर सहचरी वृन्द के साथ परस्पर होली खेलते हैं। श्री राधारानी उनपर रंग बरसाते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र विषयक राधा रानी का जो दिव्यातिदिव्य अनुराग है, उसी रंग को राधारानी सब पर बरसाती हैं। सभी को श्रीकृष्ण विषयक प्रीति से आप्लावित कर देती हैं। श्रीकृष्ण भी अपने अनुराग की बरसात होली के रूप में करते हैं। इतना गुलाल बरसता है कि आकाश भी रंग बिरंगा हो जाता है। आकाश समस्त प्रपंच का उपलक्षण है। अकाश तत्व से ही अन्य तत्व क्रमशः वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी प्रकट हुए हैं। इन्हीं पांचों तत्वों के समिश्रण से पंचीकृत तत्वों के संयोग से ही प्रपंच की रचना होती है। आकाश के रंग जाने का तातपर्य है कि सम्पूर्ण दृष्य राधा कृष्ण के प्रेम से आल्हादित, आप्यापित हो जाता है। जिस तरह होली प्रेम बंधन में बंधी दिखती है उसी तरह संसार की हर जड़ चेतन वस्तु एक दूसरे से बंधी है। परमाणु के अर्न्गत भी इलैक्ट्रान एवं प्रोटॉन के बीच भी एक बंधन, आकर्षण होता है। दृष्यमान संसार के ग्रह उपग्रह सहित सभी आकाश गंगाएं एक सुदृढ़ बंधन से बंधे होने के कारण परमात्मा ही हैं। परमात्मा ही इस सम्पूर्ण प्रपंच का निमित्त कारण है।
प्रेम का प्रभाव विलक्षण है। जिसके हृदय में प्रेम प्रतिष्ठित है उसके सामीप्य से क्रूरतम व्यक्ति भी अविभूत हो जाता है। होली के दिन आपस की बड़ी से बड़ी दुश्मनी भुलाकर लोग परस्पर रंग डालकर गेले मिलते हैं। यह रंग प्रेम का ही तो रंग है। इस दिन जब भी व्यक्ति घर से निकलता है उसकी ऑंखों पर प्रेमरंग चढ़ा रहता है। वह सामने आने वाले व्यक्ति के छोटे बडे़, शत्रु या मित्र, किस जाति का है इसका भी ध्यान नहीं रखता। भेदभाव रहित यह निश्छल प्रेम ब्रज की होली की मर्यादा को जीवंत करता है। मार्यादा के अनुसार भी गले लगाने का विधान है। होली केवल हमारे तन को ही नहीं हमारे अम्बर को, हमारे अन्तर को भी अनुरंजित करे। हमारे अन्तःकरण श्यामा श्याम के प्रेम से आप्यापित हो जाएं यह कामना लेकर बरसाने में श्री वृषमानु जी की ड्योढ़ी चढ़ें। यहॉं प्रिया प्रियतम परस्पर प्रीति के रंग बरसा रहे हैं।
मथुरा। होली आनन्द का आल्हाद का महोत्सव है। विश्व के कई देशों में इसे भिन्न भिन्न रूपों में मनाया जाता है। होली पर्व मनाने के कई संदर्भ प्रस्तुत किए जाते हैं। मनोवैज्ञानिक इसे कुण्ठाओं की निवृत्ति का पर्व मानते हैं। मनुष्य अपनी दबी हुई कुण्ठाओं को इस दिन निःसंकोच प्रकट करता है, फिरभी कोई बुरा नहीं मानता। प्रसिद्ध यूनारी विचारक ऐरिस्टोटल का केथरसिस सिद्धांत भी इसी विचार का प्रतिपादन करता है। कृषक इसे लहलहाती फसल कटने का अनंद उत्सव मानते हैं। सामाजिक जन इसे जन समाज की उूंच नीच की दीवार को तोड़ने वाला होली पर्व मानते हैं। भगवदीय जन इसे बुराई पर भलाई का विजय पर्व मानते हैं। भक्त प्रहलाद भलाई के प्रतीक हैं तथा होलिका जो हरिण्यकशिपु की बहन हैं, विलासिता, अनाचारपूर्वक संचय का प्रतीक है। प्रातीतिक दुःसाधन युक्त होने के बावजूद होलिका अपनी रक्षा नहीं कर पाईं और अग्नि उसे भस्मसात कर गई।
हिंसः स्वपापेन विहिंसितः खलः साधुः समत्वेन भयाद् विमुच्यते। बुराइयों की, कटुताओं की, वैमनस्य की, दुर्भावों की होली जलाओ और प्रेम का, सद्भाव का, सदाचार का रंग सब पर बरसाओ।
ब्रज की होली तो जगत से अनूठी होती है। यहॉं प्रिया प्रियतम अपने सहचर सहचरी वृन्द के साथ परस्पर होली खेलते हैं। श्री राधारानी उनपर रंग बरसाते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र विषयक राधा रानी का जो दिव्यातिदिव्य अनुराग है, उसी रंग को राधारानी सब पर बरसाती हैं। सभी को श्रीकृष्ण विषयक प्रीति से आप्लावित कर देती हैं। श्रीकृष्ण भी अपने अनुराग की बरसात होली के रूप में करते हैं। इतना गुलाल बरसता है कि आकाश भी रंग बिरंगा हो जाता है। आकाश समस्त प्रपंच का उपलक्षण है। अकाश तत्व से ही अन्य तत्व क्रमशः वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी प्रकट हुए हैं। इन्हीं पांचों तत्वों के समिश्रण से पंचीकृत तत्वों के संयोग से ही प्रपंच की रचना होती है। आकाश के रंग जाने का तातपर्य है कि सम्पूर्ण दृष्य राधा कृष्ण के प्रेम से आल्हादित, आप्यापित हो जाता है। जिस तरह होली प्रेम बंधन में बंधी दिखती है उसी तरह संसार की हर जड़ चेतन वस्तु एक दूसरे से बंधी है। परमाणु के अर्न्गत भी इलैक्ट्रान एवं प्रोटॉन के बीच भी एक बंधन, आकर्षण होता है। दृष्यमान संसार के ग्रह उपग्रह सहित सभी आकाश गंगाएं एक सुदृढ़ बंधन से बंधे होने के कारण परमात्मा ही हैं। परमात्मा ही इस सम्पूर्ण प्रपंच का निमित्त कारण है।
प्रेम का प्रभाव विलक्षण है। जिसके हृदय में प्रेम प्रतिष्ठित है उसके सामीप्य से क्रूरतम व्यक्ति भी अविभूत हो जाता है। होली के दिन आपस की बड़ी से बड़ी दुश्मनी भुलाकर लोग परस्पर रंग डालकर गेले मिलते हैं। यह रंग प्रेम का ही तो रंग है। इस दिन जब भी व्यक्ति घर से निकलता है उसकी ऑंखों पर प्रेमरंग चढ़ा रहता है। वह सामने आने वाले व्यक्ति के छोटे बडे़, शत्रु या मित्र, किस जाति का है इसका भी ध्यान नहीं रखता। भेदभाव रहित यह निश्छल प्रेम ब्रज की होली की मर्यादा को जीवंत करता है। मार्यादा के अनुसार भी गले लगाने का विधान है। होली केवल हमारे तन को ही नहीं हमारे अम्बर को, हमारे अन्तर को भी अनुरंजित करे। हमारे अन्तःकरण श्यामा श्याम के प्रेम से आप्यापित हो जाएं यह कामना लेकर बरसाने में श्री वृषमानु जी की ड्योढ़ी चढ़ें। यहॉं प्रिया प्रियतम परस्पर प्रीति के रंग बरसा रहे हैं।
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